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29 August 2015

ऑनलाइन रिश्ते

आभासी दुनिया के
ऑनलाइन रिश्ते
अपने भीतर
सिर्फ समेटे रहते हैं
एक आभास
कुछ होने का
जो वास्तव में
कुछ नहीं होता ।
यहाँ वहाँ बिखरे
ज्ञान विज्ञान
मनोरंजन की
बातों के बीच
छल छद्म
द्वेष स्वार्थ
और लालच
जमाए रहते हैं
कहीं गहरी पैठ
जिसका नतीजा
होते हैं
सिर्फ कुछ सिफर
जो शिखर से गिर कर
हजार टुकड़ों में बंट कर
फर्श पर
कहीं बिखरे होते हैं ।
आभासी दुनिया के
ऑनलाइन रिश्ते
कुछ ऐसे ही होते हैं।

~यशवन्त यश©

18 August 2015

गुसलखाने में भजन और वीराने में कोयलिया कूक-अशोक सण्ड

ले ही एक चर्चित फिल्म में अपराधी के मोबाइल पर यकायक बज उठी रिंगटोन से दबंग पुलिस अफसर झूमने लगा था, उस दिन रियल लाइफ में मल्टीप्लेक्स के वाशरूम में (लघु) शंका के निवारण के समय निकट खड़े साथी के मोबाइल से जब लताजी के कंठ से एक पवित्र मंत्र सुनाई पड़ा, तो शांत हो गई नाड़ी। असमय ध्वनित रिंगटोन से पड़ोसी भी असहज दिखे। कान से जनेऊ  उतारने के बाद भाईजान के सॉरी कहने पर अपने सफेद बालों की आड़ लेते हुए हमने कहा- भइये, जिस हालत में आप खुद मौन साध लेते हो, उसमें इस 'बेजुबान' को भी सायलेंट मोड में डाल दिया होता। पसंदीदा गीत के मुखड़े, मंत्रोच्चार और शास्त्रीय आवाजों को रिंगटोन में कैद करना सांगीतिक अनुराग नहीं, बल्कि एक सनक है। नित नई कॉलर ट्यून, अक्सर बदलती रिंगटोन। वैसे, पहली बार रिंगटोन की विविधता से अपना परिचय श्मशान में ही हुआ। हरियाली विहीन स्थान पर अचानक कोयल की कूक सुन मैं इधर-उधर निहारने लगा था कि निकट बैठे 'गमगीन' भाई साहब ने जेब से मोबाइल फोन निकालकर मुस्कराते हुए सूचित किया यह 'रिंगटोन' थी।

ग्राहम बेल ने जब फोन का ईजाद किया होगा, तब उसने यह कल्पना भी न की होगी कि कालांतर में इसकी नस्लें स्लिम-ट्रिम होने के साथ-साथ कैमरा, कंप्यूटर, संगीत, चिट्ठी-पत्री सब कुछ ठूंस लेंगी अपने अंदर। बेस फोन तो बेचारा अब घर बैठे बुजुर्गों की तरह एक ही सुर में ट्रिन-ट्रिनाता (भुनभुनाता) रहता है। रिंगटोन्स का संगीत बस उतनी देर के लिए परोसा जाता है, जब तक कि हरा बटन दबाना है या माचिस की तीली माफिक उंगली को स्क्रीन पर रगड़ना है। बाकी सब तो ठीक है, मगर दुख की खबर साझा करने पर नगाड़ा-नगाड़ा बजा की कॉलर ट्यून उस दुख का उपहास ही उड़ाती है। संगीत की इस सनक ने जिस दिन 'डोरबेल' पर दस्तक दे दी, तब दरवाजे पर अलाप लगेगी तेरे द्वार खड़ा भाईजान... क्या पता, कविता के शौकीन हाई पिच पर गुहार लगाते मिलें, अबे सुन बे नवाब...आगे-आगे देखिए होता है क्या?
.
साभार-'हिंदुस्तान'-18/08/2015 

15 August 2015

कुछ लोग-27

(1)

कुछ लोग
समझते हैं
आज़ादी का
सही मतलब
और आनंद लेते हैं
हर पल का
कभी
कूड़े के ऊंचे ढेरों में
तलाशते हैं
दो वक़्त की रोटी
और अपना भविष्य
कभी फुटपाथों पर
फटेहाल भी
मुस्कुराते हुए
निभाते हैं
खुले आसमान
और ज़मीन से
अपना रिश्ता ।

(2)

कुछ लोग
समझते हैं
आज़ादी को
अपने घर की खेती
जिनका उद्देश्य
कायरों की तरह
छुप कर
करना होता है वार
दूसरों पर
कभी ज़ुबानों से
कभी तीरों से
हर चूकते निशाने को
समझते हैं
अपनी वीरता का दम
हर उल्टे वार से बेखबर
आज़ादी के भ्रम में
धँसते जाते हैं
दलदलों में
कुछ लोग
बहुत समझदारी से
दिखाते हैं खुद को
नासमझ
आज़ादी से।

~यशवन्त यश©

13 August 2015

यूं ही चलते चलते

यूं ही चलते चलते
कभी कदम
थम जाते हैं
थोड़ा सुस्ताते हैं
और फिर
चलने लग जाते हैं
उसी पूरी रफ्तार से
कई सुबहों
और
कई शामों की
परिक्रमा लगाते लगाते
फिर एक दिन
जब सोते हैं
तब जागते हैं
किसी नये चोले के भीतर
किसी और
अलग सी दुनिया में
यूं ही चलते चलते।

~यशवन्त यश©

08 August 2015

बेवकूफ़ हम ही थे.......

वह एक ही हैं
वह एक ही थे,
सबसे बड़े बेवकूफ़
हम ही थे।
शक तो पहले भी था
अब तो सबूत भी है
बात पहले से
और मजबूत भी है ।
यह भी अच्छा हुआ
कि राहें अलग हो चलीं
फिर भी हलचलों का
अब तक वजूद भी है ।
हमें हारा समझना
उनकी ना समझ है
भीतर के कालों की
थोड़ी ऊपरी चमक है ।
वह अब भी वही हैं
वह तब भी वही थे
सफ़ेद पर्दों के भीतर
स्याह चेहरे वही थे ।
थी गलती हमारी 
उन्हें अपना समझने की 
मतलब के 'रिश्तों' से 
अनजान हम ही थे।
 
~यशवन्त यश©

कुछ लोग -26

वर्णांधता से ग्रस्त
कुछ पढे लिखे
स्थापित लोग
नहीं कर पाते अंतर
व्यंग्य,कविता,
कहानी और लेख में
निकालते हैं मीन मेख
सत्यता को 
बिना देखे
बिना परखे
नाचते हैं 
दूसरों की
कठपुतली
बन कर
और अंततः
अपने भीतर की
ईर्ष्या की
आग में झुलस कर
खुद ही हो जाते हैं भस्म
ऐसे ही कुछ लोग।

~यशवन्त यश©

06 August 2015

कुछ चीज़ें नहीं होतीं आसान

कुछ चीज़ें
जितनी आसान लगती हैं
होती हैं
कहीं ज़्यादा कठिन
फिर भी हम
पड़े रहते हैं
उनके पीछे
कभी दबंगई
डर या दहशत
दिखा कर
कभी
चुगलखोरी
चापलूसी
या तारीफ़ों के
पुल बांध कर 
हम करना चाहते हैं
हर पल को
अपने वश में .....
सब कुछ जान कर भी
बने रहते हैं
अनजान
कि कुछ चीज़ें
नहीं होतीं
उतनी आसान।

~यशवन्त यश©

04 August 2015

कुछ लोग -25

कुछ लोग
पा लेते हैं
सब कुछ
अपने कर्म
और
अपने भाग्य से
वहीं
कुछ लोग
करते रहते हैं
इंतज़ार
किस्मत के
दरवाजे खुलने का
यूं ही
बैठे बैठे
दस्तक देते देते
खुल जाता है
साँसों का दरवाजा
और आँखें
बंद हो जाती हैं
सदा के लिये
कुछ लोगों की। 

~यशवन्त यश©

03 August 2015

साहित्य के संसार में मेरा योगदान -सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार

'योगदान' हिंदी का वह महादान है, जिसे लेखक द्वारा या तो किया जा चुका है अथवा वह कर रहा होता है या करने वाला होता है। साहित्य और योगदान का अंतरंग संबंध है। साहित्यकार जो करता है, वह उसका 'योगदान' कहलाता है। वह जो कुछ कर चुका है, कर रहा है या करेगा, वह उसका योगदान ही होगा और जिसे उसका या तो 'अभूतपूर्व योगदान' कहा जाएगा या फिर 'अतुलनीय योगदान' अथवा 'अप्रतिम योगदान।' योगदान जब भी, जिसके द्वारा भी किया जाता है, हमेशा 'विनम्रतापूर्वक' ही किया जाता है। 'विनम्रता' हिंदी साहित्यकार की वह मुद्रा है, जिसमें वह हमेशा हाथ जोड़े यानी करबद्ध होकर चेहरे पर 'अनुनय-विनय' के भाव के साथ 'सविनय निवेदन' करता हुआ 'नैवेद्य' अर्पित करता हुआ पाया जाता है। कहा भी जाता है कि 'त्वदीयंवस्तु गोविंदम् तुभ्यमेव समर्पये' यानी 'हे गोविंद! (यानी जनता) ये तेरा माल तुझी को मुबारक!' यानी 'जो कुछ मुझे दिया है, वो लौटा रहा हूं मैं (मय ब्याज के)।' कहने की जरूरत नहीं कि साहित्यकार वह योगी है, जो अपने लिए कुछ नहीं करता और न अपने पास कुछ रखता है, बल्कि सब कुछ दान कर देता है और वह भी विनम्र भाव से। ऐसा विनम्र योगदान हिंदी के अखिल भारतीय शोध छात्रों के लिए पीएचडी का पॉपुलर विषय यानी 'टॉपिक' कहलाता है। योगदान हमेशा विपुल होता है और इसीलिए पीएचडी भी विपुलाकार होती है। 50 साल के योगदान को समेटना कोई हंसी-ठट्ठा नहीं।

जो पीएचडी वीर इसे पांच-सात सौ पेजों में समेटने की कला दिखा देता है, वह आचार्य पद को प्राप्त करता है। जैसे ही किसी ने ऐसे योगदान पर एक भी पीएचडी की या कराई, देखते-देखते देश भर में उस पर सौ-पचास पीएचडी हुई समझिए। यही हिंदी का 'एकोहं बहुस्याम:' यानी बहुलतावादी भाव है। योगदान और पीएचडी के बीच 'अन्योन्याश्रय' संबंध कहा जाता है। जो पीएचडी लायक न हुआ, उसका योगदान क्या? पीएचडियां उसी पर हुई हैं, जिसने साहित्य को विनम्र-फिनम्र स्टाइल में कुछ दिया होता है। जिस दानी पर पीएचडी हुई, वह जीते जी स्वर्ग में कलोनी काटता है और जिस पर न हो सकी, वह सीधे प्रेतयोनि को प्राप्त होता है। उसकी अभिशप्त आत्मा एक ठो पीएचडी के लिए तरसती है और जिस-तिस पर मुकदमे करती रहती है। आप उसके योगदान पर एक पीएचडी करवा दीजिए- कोटि-कोटि योनियों में अटकती-भटकती- लटकती आत्मा अपना केस वापस ले लेगी। ऐसा हुआ है और ऐसा ही होता है। यह सवाल शुद्ध साहित्येतर कोटि का घटिया सवाल ही कहा जा सकता है कि कोई पूछे कि किसने कितना योगदान किया है और किस तरह से किया? आप यह तो पूछ सकते हैं कि योगदान किस युग वाला है? लेकिन यह पूछना कि 'क्यों और किस तरह किया है?' शुद्ध बदतमीजी मानी जाएगी। यह दानी का अपमान है। योगदान करने वाला योगदान करता है। पीएचडी करने वाला पीएचडी। आपको क्या? आज के कंजूस युग में जब प्यासे को फ्री में दो चुल्लू पानी तक कोई नहीं पिलाता, तब एक बंदा विनम्रतापूर्ण योगदान किए जा रहा है और दूसरा उसके दुर्लभ योगदान को ढूंढ़ निकाल रहा है और उतनी ही विनम्रतापूर्वक पीएचडी कर डाल रहा है, तब 'क्यों' टाइप सवाल कोई अति कमीना दिमाग ही कर सकता है। हे ईश्वर! उसे क्षमा कर, वह नहीं जानता कि क्या पूछ रहा है? हे पाठक! दूसरों के योगदान को योगदान बताना ही अपना योगदान है।

साभार-हिंदुस्तान-03/08/2015 

01 August 2015

कुछ रिश्ते ........

कुछ 
रिश्ते
अनचाहे ही
ढोए जाते हैं
गधे की पीठ पर लदे
बोझे की तरह
अपनी सुस्त चाल
चलते जाते हैं
और आखिरकार
पटक दिये जाते हैं
किसी घाट पर
धो-पोछ कर
सुखा  कर 
फिर से झेलने को
या
कर दिये जाते हैं
प्रवाहित
हमेशा के लिए
मुक्त हो जाने को। 

~यशवन्त यश©
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