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27 April 2015

यूं ही जीता चलता हूँ

यहीं कहीं
कभी कभी
मन के
एक कोने मे
छुप कर
जी भर
बातें करता हूँ
खुद से ही
अनकही को
कहता हूँ
अंधेरों से भरे
सुनसान रस्तों पर
डरता हूँ
मगर चलता हूँ
हताशा-निराशा के पलों में
झुरमुटों की ओट से
किसी रोशनी की
तमन्ना
और उम्मीद लिये
अपने मन की
सुनता चलता हूँ
यूं ही जीता चलता हूँ। 

~यशवन्त यश©

16 April 2015

सूने खेतों को अब सिसक कर रोना ही होगा.......

सूने खेतों को अब सिसक कर रोना ही होगा
चूल्हे की आग को दिल में जलना ही होगा
नहीं यहाँ कोई कि जो पी सके आंसुओं को
मजबूरी को हर हाल में बहना ही होगा।

~यशवन्त यश©

12 April 2015

कुछ लोग-14

अपने आप से ही
कई अनुमान
लगाने वाले
कुछ लोग
अपने गुमान में खो कर
कभी कभी
करने लगते हैं
दूसरों के
अस्तित्व पर प्रहार
और खुद हो जाते हैं शिकार
वक़्त की तीखों चोट का
क्योंकि
वक़्त
अपने भीतर
समाए हुए है
सही गलत का
पूरा लेखा जोखा
जिसे मिटाना
संभव नहीं
किसी भी
पैबंद से। 

~यशवन्त यश©

08 April 2015

बदलता ज़माना .....

कभी
किसी जमाने में
निकला करते थे
सूरज और चाँद
पेड़ों की
या
पहाड़ों की
ओट से
हँसते मुस्कुराते हुए
अपनी गरमाहट
और ठंडक से 
दिया करते थे
शांति 
झुलसते या
ठिटुरते मन को ....
और अब
आज के
इस दौर में
चाँद और
सूरज पर
दिखने लगा है
असर
समय के
संक्रमण का  .....
दोनों
निकलते हैं
अब भी
अपने समय से 
एक उदासी के साथ
तलाशते हैं
हरी पत्तियों का
स्वागत हार
लेकिन
अब इनके
चेहरे के सामने
हर सुबह और शाम 
खड़ी होती है 
सीमेंट की
ऊंची दीवार 
जिसके उस पार
प्रकृति से बेपरवाह
हम सब
उलझे रहते हैं
बदलते जमाने की
भूल भुलैया में। 
 
~यशवन्त यश©

01 April 2015

मूर्ख कौन ?

मूर्ख कौन ?

वह ?
जो दिन रात एक करके
खून पसीने से
सींचता है
खेतों में
लहलहाती फसलों को
और बदले में
झेलता है
आँधी-पानी
तीखे कटाक्ष
खाता है
समय की तीखी मार
और हो जाता है शरणागत
मृत्यु देवी के चरणों में......

या
मूर्ख
वह ?
जिसकी पोटली में
भरे रहते हैं
झूठ के
अनंत आश्वासन
और उसकी निगाहें
ताकती हैं मौका
किसी की
बंजर -उर्वर
धरती को
छलनी करके
आंसुओं की नींव पर
सपनों की
दुनिया सजाने का ....

जो भी हो
मूर्ख
और मूर्खता
जड़ मूल हैं
किसी की विपत्ति
और
किसी की समृद्धि का
क्योंकि
विकास और विनाश
संभव नहीं
सीधे सादे
तरीकों से
आज के समय में।

~यशवन्त यश©
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