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19 February 2015

नहीं कहना कुछ भी किसी से

यूं तो हैं यहाँ
बहुत से किस्से
सुनने सुनाने को बहुत से
सुनूँ क्या
और क्या कहूँ किससे ....?

नहीं दिखता यहाँ
कोई अपना सा
कुछ समझता सा
राह दिखाता सा
बस 
खुद की परछाई से
अक्सर बातें करता सा....

मन की आज़ादी को
बांटते हुए खुद से
मुझे नहीं कहना
कुछ भी किसी से।

~यशवन्त यश©

11 February 2015

कहना नहीं आता लिखना नहीं आता .......

कहना नहीं आता
लिखना नहीं आता
शब्दों से कभी
खेलना नहीं आता।

ये जो कुछ भी है बिखरा
और रचा बसा यहाँ पर
किस दिमाग की उपज
समझ नहीं आता।

बस देखता हूँ नज़ारे
कुछ यहाँ के कुछ वहाँ के
पेड़ों के हिलते पत्ते
और इशारे हवा के ।

झोंकों से झूमते मन को
कभी नाचना नहीं आता
गुनगुनाता है गीत
कभी गाना नहीं आता। 

सजा देता है दर्द
खुशी और गम के आंसुओं को
पिघलते मोम को कभी
जलना नहीं आता। 

कहना नहीं आता
लिखना नहीं आता
इन शब्दों को कविता
बनना नहीं आता। 

~यशवन्त यश©

01 February 2015

वक़्त के कत्लखाने में -8

बाहर चल रहे
तेज़ तूफान के असर से
वक़्त के कत्लखाने के भीतर
होने लगती है
हलचल 
हिलने लगते हैं पर्दे
दरवाज़े और खिड़कियाँ
अंतिम पल
गिनने लगती हैं
भीतर की रोशनियां  ..
हवा के तीखे झोंके
झकझोर देते हैं
कई पैबंद लगी
खंडहर सी इमारत की नींव
जिसमें रहने वाले
इंसानी शक्लो सूरत वाले
नवजात और
उम्रदराज जीव
कंपकपाने  लगते हैं
अनहोनी की आहट से
और तभी
उम्मीदों के कुछ बादल
कहीं से आ जाते हैं
छा जाते हैं 
और बरस जाते हैं
आँखों से आंसुओं की तरह
दे जाते हैं नमी
प्यास से व्याकुल
हिलती डुलती धरती को
और फिर
हल्की मुस्कुराहट के साथ 
लौट आते हैं
वही पुराने
सुकून के पल
वक़्त के
इसी कत्लखाने में। 
 
~यशवन्त यश©


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