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23 October 2014

आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ !

इन जलते हुए
हजारों दीयों में
ढूंढ रहा हूँ
एक अपना दीया
जिसकी रोशनी
सैकड़ों अँधेरों के
उस पार
पहुँच कर
दिखा दे एक लौ
उन उम्मीदों की
जो अब तक
सिर्फ कल्पना बन कर
उतरती रही हैं
कागज़ के झीने
पन्नों पर ....
किरचे किरचे बन कर
अब तक
जो उड़ती रही हैं
हवा में
और चूमती रही हैं
धरती के पाँव
उन उम्मीदों की
एक लौ
गर पहुँच सके
उन अँधेरों के दर पर
जिनके भीतर कैद
आंसुओं का सैलाब
बेचैन है
सब्र के हर बांध को
तोड़ कर 
नयी सड़कों पर
बह निकलने को
नये एहसासों के साथ 
तब सार्थक होगी
मावस की
यह रोशन रात 
गर ढूंढ सका
हजारों
जलते दीयों की
भूलभुलैया में
एक अपना दीया
जिसकी तलाश में
कितनी ही सदियाँ
बीत चुकीं
और कितनी ही
बीतनी बाकी हैं।

~यशवन्त यश©
owo21102014519pm 

16 October 2014

अच्छे दिन+अच्छे दिन

आटे दाल का भाव न पूछो
भरे बाज़ार पहेली बूझो
गुम हो गया चिराग का जिन्न
अच्छे दिन अच्छे दिन। 

आलू ,गोभी अकड़ दिखाता
मंडी जाना रास न आता
महंगाई के यह ऐसे दिन  
अच्छे दिन अच्छे दिन। 

देवियाँ अब भी लुटतीं पिटतीं 
अपमान के हर पल को सहतीं 
कहाँ कृष्ण ....यह कैसे दिन 
अच्छे दिन अच्छे दिन। 

दुखों मे जीता गरीब- किसान 
सूखा-बाढ़ से परेशान 
कम कीमत पर काटता दिन
अच्छे दिन -अच्छे दिन। 

टैक्स बचा कर टाटा टाटा 
एंटीलिया अंबानी बनाता 
फुटपाथों पर छत के बिन 
अच्छे दिन अच्छे दिन। 

काला धन कहीं नज़र न आता 
अब न कोई वापस लाता  
नमो -नमो जप जप के गिन 
अच्छे दिन अच्छे दिन ।

-यशवन्त माथुर ©
16102014

15 October 2014

मौसम के रंग

बहुत अजीब होते हैं
पल पल
बदलते 
मौसम के रंग
कभी 
पलट देते हैं
मोड़ देते हैं 
तैरती नावों के रुख  
और कभी
अपनी ताकत से
चूर कर देते हैं
धरती का घमंड ....
इन रंगों में
कोई रंग 
कभी देता है ठंडक
डाह मे जलते
झुलसते मन को
और कभी
कोई रंग
दहका देता है
भीतर की आग को
जो लावा की तरह
निकलती है बाहर
तीखे शब्दों के
सुलगते ज्वालामुखी से.....
मौसम के
इन बदलते 
इन रंगों में
कोई रंग
कभी अपना सा
कभी गैर सा
लगता है
अपनी तरह
बदलता रहता है
मन को
मन की बातों को  .....
ठंडी हवा के
मीठे-तीखे
एहसास
साथ लिए 
रंग बदलते
मौसम के ढंग
बहुत अजीब होते हैं।

~यशवन्त यश©

owo15102014 

10 October 2014

वक़्त के कत्लखाने में -7

बज रहा है
कभी धीमा
कभी तेज़ संगीत
वक़्त के
इसी कत्लखाने में
जहाँ बंद आँखों से
ज़िंदगी
रोज़ देखती है
अगले सफर के
सुनहरे सपने
और खुश हो लेती है
देह की
अंतिम विदा में
उड़ते फूलों की
लाल पीली 
पंखुड़ियों को
महसूस कर के
खुद पर
बिखरा हुआ ....
आज
नहीं तो कल
जिस्म की कैद से
बाहर निकल
उसे भटकना ही है 
खुद के लिये
फिर एक नये
पिंजरे की खोज में
सुनते हुए
वही चाहा-
अनचाहा संगीत
जो  सदियों से
बजता आ रहा है 
एक ही सुर में
वक़्त के कत्लखाने में।

~यशवन्त यश©

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05 October 2014

मन

मन !
भटकता है कभी
कभी अटकता है
आस पास की
दीवारों पर
लटकती
तस्वीरों के
मोहपाश में
फँसकर
कुछ समझता है
कभी
कुछ कहता है
बातें करता है
तन को छू कर
निकलने वाली
ठंडी हवाओं से
पेड़ों की हिलती
शाखाओं से
झरती सूखी पत्तियों
नयी कलियों से
तुलना करता है
कभीखुद के
बीते कल की
आज की
बनाता है रूपरेखा
हर अगले पल की
उलझते हुए
सुलझते हुए
उखड़ती साँसों से
कभी जूझते हुए
मन बस
मन ही होता है
किसी सागर से उठती
बेपरवाह लहरों की तरह।

~यशवन्त यश©
owo-05102014

03 October 2014

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक.....(पुनर्प्रकाशन)

आप सभी पाठकों को दशहरा बहुत बहुत मुबारक !
इस ब्लॉग पर पिछले वर्ष प्रकाशित पोस्ट को ही इस बार भी पुनर्प्रकाशित कर रहा हूँ।

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 
भीड़ को चीरता हर चेहरा मुबारक
हर बार की तरह राम रावण भिड़ेंगे 
तीरों से कट कर दसों सिर गिरेंगे 
दिशाओं को घमंड की दशा ये मुबारक
दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 
महंगाई में भूखा हर चेहरा मुबारक
गलियारे दहेज के हर कहीं मिलेंगे 
बेकारी मे किसान लटके मिलेंगे
मिलावट का आटा-घी-तेल मुबारक 
दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 

दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 
रातों में हर उजला सवेरा मुबारक
कहीं फुटपाथों पे लोग सोते मिलेंगे 
जिंदगी से हार कर कहीं रोते मिलेंगे 
हम ही राम- रावण,यह लीला मुबारक 
दशहरा मुबारक- दशहरा मुबारक 

~यशवन्त यश©

02 October 2014

क्या ऐसा हो सकता है ?

नोटों पर छपी
तुम्हारी
मुस्कुराती तस्वीर
हर रोज़ गुजरती है
न जाने कितने ही
काले हाथों से ........

दीवारों पर लगी
तुम्हारी
मुस्कुराती तस्वीर
हर रोज़ गवाह बनती है
न जाने कितने ही
असत्य बोलों की .......

तुम
बदलना चाहते थे
देश समाज
और विश्व
पर तुम्हारा
असीम संघर्ष
अंतिम साँस के साथ ही
दफन हो गया
उन किताबों के
गर्द भरे पन्नों पर
जिन्हें झाड़ पोछ कर
सजाया जाता है
हर साल
आज ही के दिन .....

मुझे बताओ
तुम कहाँ हो ?
अगर हो यहीं कहीं
तो क्या दिला सकते हो यकीं
कि तुम फिर आओगे
आज की
छटपटाती आज़ादी को
दिखाने एक नयी राह .....

बापू !
क्या ऐसा हो सकता है  ?

~यशवन्त यश©

01 October 2014

मैं 'देवी' हूँ-4 (नवरात्रि विशेष)

दुनिया की सूरत
देखने से पहले ही
मुझे गर्भ में मारने वालों !
मेरे सपने सच होने से पहले ही
दहेज की आग में
जलाने वालों !
सरे बाज़ार
मेरी देह की
नीलामी करने वालों !
बुरी नज़रों से
देखने वालों !
गली कूँचों
पार्कों में
मेरे दरबार
सजाने भर से
जागरण की रातों में
फिल्मी तर्ज़ पर बने
भजन
और भेंटें गाने भर से
इन सब से
न तुम्हें पुण्य मिलेगा
न ही मोक्ष मिलेगा
क्योंकि
तुम्हारे असली कर्म
दर्ज़ हैं
हर 'दामिनी'
हर 'निर्भया'
के दिल और
आत्मा से निकली
बददुआओं के
एक एक शब्द में ........
क्योंकि
तुम्हारे असली कर्म
दर्ज़ हैं
नश्तर की धार से बहते
मेरे लहू की
एक एक बूंद में .....
क्योंकि
तुम्हारे असली कर्म
दर्ज़ हैं
आग में जलकर
राख़ हुए
मेरे हर अवशेष में.....
तो
तुम अब जान लो
मैं पत्थर में प्राण नहीं
मैं साक्षात हूँ
तुम्हारे ही आस पास
तुम्हारी माँ
बहन-वामा
या बेटी हूँ
मैं देवी हूँ।

~यशवन्त यश©
owo-18092014
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