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23 August 2014

कुछ लोग -6

पूर्वाग्रहों से
घिरे हुए
कुछ लोग
सब कुछ
जान समझ कर
बने रहते हैं
अनजान
करते रहते हैं
बखान
अपनी
सोच की
चारदीवारी के
भीतर की
उसी किताबी
मानसिकता की
जो निकलने नहीं देती
देखने नहीं देती
बाहर की दुनिया में
हो रहे
बदलावों की तस्वीर....

ऐसे लोग
अपने 'वाद' में
उलझे रह कर
व्यर्थ के विवादों का
सहारा ले कर
ढहा देते हैं
तर्क की
नींव पर
बन रही
एक
खूबसूरत
इमारत को ....
बिना जाने
बिना समझे
बिखरा देते हैं
एक एक ईंट
पूर्वाग्रहों से
घिरे हुए
कुछ लोग
अक्सर कर बैठते हैं
भूल
समय की
नीचे झुकी हुई
शिखा को
शिखर समझने की ।

~यशवन्त यश©

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18 August 2014

चलो कहीं चलें इन अँधेरों से निकल कर

छोटी सी ज़िंदगी का
बहुत लंबा है सफर

चलो कहीं चलें
इन अँधेरों से निकल कर

कहीं जल रही है लौ
स्याह तस्वीरों की आँखों में

उलझे हैं जिनके होठ
बहते जीवन की बातों में

माना कि कठिन है
यहाँ काँटों भरी डगर

फिर फूल भी मिलेंगे
आगे कहीं बिखर कर

मिलेगा सुकुं रूह को
अब साहिल पर ही थम कर

चलो कहीं चलें
इन अँधेरों से निकल कर ।

~यशवन्त यश©

15 August 2014

लाल किले पर शान से तिरंगा लहराता है

सभी मित्रों को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ! 

एक तरफ रंक
एक तरफ राजा
कहीं दौलत का बंद
कहीं खुला दरवाजा .....

बड़ी मुश्किल से कहीं
पिसता गेहूं आटा
देखो यहीं कहीं
कोई पिस्ता मेवा खाता ....

बचपन कहीं पचपन
कहीं पचपन मे बचपन
चाँदी की चम्मच को
कोई ढालता कोई खाता .....

ऐसा ही है जीवन
यहाँ दो रंगों वाला
दो जून का निवाला
कोई किस्मत से ही पाता .....

ढूंढ रहा भारत
कहाँ भाग्य विधाता है
लाल किले पर शान से
तिरंगा लहराता है ......... ।

~यशवन्त यश©

07 August 2014

ज़रूरी नहीं.....

ज़रूरी नहीं
कि लिखा हो
सब कुछ
अपने मतलब का
किसी किताब के
हर पन्ने पर
कुछ बातें
होती हैं
अर्थ हीन
तर्क हीन
हमारी नज़र में
लिये होती हैं
मंज़र
बंजर ज़मीन सा
जिसके चारों ओर
फैला रहता है
घना सुनसान ....

लेकिन
उसी किताब की
पथरीली
बंजर
ज़मीन पर
कुछ और नज़रें
खिलते देखती हैं
उल्लास के
अनेकों फूल
जिनकी
उम्मीदों भरी
मुस्कुराहट
उस सुनसान मे भी
कराती  है एहसास
किसी अपने के
यहीं कहीं
करीब होने का ....

मन की परतों के
अनगिनत
पन्नों वाली
वह किताब
खुद मे
भविष्य के
अनेकों चेहरे लिये
वर्तमान के दर्पण मे
हर पल
दिखा कर
अपनी छाया
झकझोरा करती है
नज़रों के
बे कसूर
भरम को।

~यशवन्त यश©

04 August 2014

कोई रंक यहाँ कोई राजा बना फिरता है

कोई रंक यहाँ कोई राजा बना फिरता है
उठता है यहाँ कोई हर रोज़ गिरा करता है।

किसी के पैरों से यहाँ कुचल जाते हैं नगीने
किसी हाथ से  छूकर सँवर जाते हैं  नगीने।

मूरत बन कर कोई खड़ा रहता है मैदानों में
शीशों मे जड़ कर कोई टंगा रहता है दीवारों मे।

एक मिट्टी के कई चोलों में एक रूह के उतरने पर
कोई कर्ज़ मे डूबा कोई महलों मे इतराया करता है।

खोया रहता है रंगीनीयों मे कोई फर्ज़ अता करता है
यूं ही गिर उठ कर कोई रंक कोई राजा बना करता है ।

~यशवन्त यश©

01 August 2014

कुछ लोग -5

कुंठा के
विष से भरे
कुछ लोग
अक्सर भूल जाते हैं
अपने बीते दिन
और वो बीती बातें
जिनके आधार पर
खड़ी है
उनके आज की
संगमरमरी इमारत.....

जिसे कभी महल
तो कभी ताज़ कह कर
लोग निहारा करते हैं
बातें किया करते हैं
मगर
मोहब्बत की वो मिसाल
खुद के भीतर
समेटे रहती है
अनगिनत
कटे हाथों के ज़ख्म .....

...फिर भी
नहीं चाहते छोड़ना
अपनी अजीब सी फितरत
गैरों के कह देने भर से
बिना कुछ समझे
बिना कुछ जाने
कुंठा के
विष से भरे
कुछ लोग
आस्तीनों
बाहर निकल कर
दिखा ही देते हैं
अपना सही रूप रंग।

~यशवन्त यश©
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