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27 November 2013

'साहब'.......(हनुमंत शर्मा जी की फेसबुक वॉल से)

आदरणीय हनुमंत शर्मा जी ने इसे कल फेसबुक पर पोस्ट किया था। इस बेहतरीन अभिव्यक्ति को इस ब्लॉग पर साभार प्रस्तुत करने से मैं खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ । 




साहब ,
नाम ज़रूरी ही तो अलमा कबूतरी कह लीजिये |
इस वक्त एक सद्यप्रसूता हूँ और आपकी पनाह में हूँ |
आदमी ने हमारे रहने लायक तो कोई जगह छोड़ी नहीं ,
पर आपकी बालकनी में कबाड़ देखा तो लगा मुझे मेरा ‘लेबर रूम’ मिल गया |
टब में लगी तुलसी की छाया में ,मैंने अपने नन्हे आगुन्तको के लिए घासपूस का बिछौना सजा लिया |
उस दोपहर छोटी बेबी पास ही खेल रही थी कि जैसे ही मैंने पहला अंडा गिराया , हैरान हो गयी कि टेनिस बाल कहाँ से आ गया ? दौड़कर माँ को बुलाया तब तक मेरा दूसरा अंडा भी आ चुका था |
मै आश्वस्त थी कि मै और मेरे अंडे सुरक्षित रहेंगे ..तब तक जब तक घर में जनानियाँ है..आखिर उनके भीतर भी तो एक माँ होती है छुपी हुई |
बस ज़रा डर बिल्ली का था तो वो भी जाता रहा क्योंकि मेरी रखवाली में दोनों बेबियाँ और मैडम जो थी..थी क्या हैं भी |
छोटी बेबी तो रात को भी नींद से जागकर देखती है ...और सुबह उठकर सबसे पहले मेरा हाल लेती है |
उसके संगी साथी झुण्ड बनाकर आते है मुझे देखने , कोई छूना चाहे तो बेबी डांट देती है |
उसे बेताबी है नन्हे चूजों को देखने की | पर अभी उन्हें बाहर आने में ३ हप्ते और लग सकते हैं |
अभी तो मै दिन रात अंडे सेंक रही हूँ |
आप जब ठंड से बचने के लिए अन्दर रजाई में दुबके होते है,मै बाहर अपने अंडो पर पंखों में हवा भरकर बैठी होती हूँ |अपनी गर्मी उन्हें देती हुई | अपने अंडो के लिए मै ही रजाई हूँ और मेरे लिए मेरे चूजों का सपना ही मेरी गर्मी है |
दिन चढ़े मेरा संगवारी भी आ जाता है ..फिर वह सेंकता है और मै दाना पानी के इंतजाम में जुट जाती हूँ | हम अनपढ़ होकर भी काम और गृहस्थी मिल बाँट कर चला लेते है | इसे लेकर हमारे बीच कोई थाना कचहरी नही हुई अब तक |
साहब , ..
कल जब चूजे निकल आयेंगे ...तब चिल्लपों .. आवा जाही ..खिलाना सिखाना ...बीट और गुटर गू ..सब बढ़ जायेगी ..और जब चूजे ठंड में ठिठुरते हुये रोकर आपकी नींद भी खराब कर दें तो शायद सुबह उठते ही आप हमें बालकनी से बेदखल करने का फैसला भी सुना दें ..
यदि ऐसा हो साहब ,
बस इतना याद रखियेगा कि हम आपके पुराने सेवक रहे हैं |
जब ना फोन थे ना मेल ...हम ही आपके हरकारे थे |
हमी जान जोखिम में रख पैरो में संदेश बांधकर जंग के मैदान में आते जाते थे |
हमी ने आपके मोहब्बत भरे पैगाम माशूका तक पहुँचाये |
आपके गीतों और ग़ज़ल का विषय बने |
आपके दिल बहलाने को पिंजरों में क़ैद हुये और स्वाद बहलाने को दस्तरखान पर परोसे भी गये |
तो साहब ..
याद करना और रहम करना ...
आप भी आल औलाद वाले हैं आपकी बच्चियों पर भी एक दिन यह दौर आना है |
दूसरो की मल्कियत पर कब्ज़ा जमाने की इंसानी फितरत हमने नहीं सीखी है ..
उधर बच्चे उड़े कि इधर आपकी बालकनी से हमे भी उड़ जाना है ..
और हम ही क्यों ?
एक दिन तो आपको भी सब ठाठ छोड़ छाड़ कर खाली हाथ जाना है ..
" कबीरा रहना नहीं देस बेगाना है .........."|||||


~हनुमंत शर्मा ©

25 November 2013

अजीब सी तस्वीर.....

कौन है वो
अनजान  ?
बिखरे बिखरे बालों वाला
जिसका आधा चेहरा
किसी पुरुष का है
आधा किसी स्त्री का
और उसका धड़
अवशेष है 
किसी जानवर का ....

न जाने कौन
बनाता  है
मन की काली दीवार पर
सफ़ेद स्याही से 
यह अजीब सी तस्वीर
जो दिल के दर्पण मे
परावर्तित हो कर
कराती है एहसास
सदियों से
चेहरों को ढकते
मुखौटों की चमक के
फीका होने का। 

 ~यशवन्त यश©

22 November 2013

और सफर जारी है

बिखरी चट्टानों पर
लहरों का असर तारी है
चल रही हैं सांसें
और  सफर जारी है

साँसे जिन पर
न मेरा वश है न किसी और का
मालिक ही लिखता है पता
पिछले और अगले ठौर का

उस मुकाम पे खुश हूँ
जिसे पाया है अब तलक
ज़मीं पे रह कर ही
छूना चाहता हूँ फ़लक

चलना है चल रहा हूँ 
न जाने कौन सी खुमारी है
लहरों को रोकती चट्टानें
और सफर ज़री है।

~यशवन्त यश©

20 November 2013

श्री तेंदुलकराय नम: !

बहुत गहरी नींद में अचानक उपजी इन पंक्तियों को रात 1:30 से 02:15 तक मन से कागज़ पर उतारता चला गया। सचिन साहब से अग्रिम माफी के साथ अब इस सुबह अपने ब्लॉग पर भी सहेज ले रहा हूँ-

भारत रतन ! भारत रतन !
सोना कहाँ,चाँदी कहाँ 
गरीब के बच्चे को रोज़ ही 
रोना यहाँ,दूध पीना कहाँ ?
श्री तेंदुलकराय नम: !

महंगाई यहाँ,मंदी यहाँ 
गर्मी यहाँ,ठंडी यहाँ 
उन्हें क्या पता ऐ सी में 
ऐसी तेसी होती कहाँ ?
श्री तेंदुलकराय नमः !

मच्छर यहाँ,मक्खी यहाँ 
मोटी रोटी पचती यहाँ 
उनका गैस का चूल्हा है 
मिट्टी लिपी भट्टी कहाँ ?
श्री तेंदुलकराय नमः !

माँस नहीं,हड्डी यहाँ 
खोखो यहाँ,कबड्डी यहाँ 
उनकी तो कोका कोला है 
चुल्लू कहाँ,टुल्लू कहाँ ?
श्री तेंदुलकराय नमः !

सूखा यहाँ,बारिश यहाँ 
रोज़ मरते लावारिस यहाँ 
उनकी वसीयत में अरबों हैं 
सैकड़ा -हज़ार क्या करते वहाँ ?
श्री तेंदुलकराय नमः!

गिल्ली यहाँ,डंडा यहाँ 
साँसों का हर हथकंडा यहाँ 
उनकी किस्मत में 'किरकट' है 
आसमान वहाँ,धरती कहाँ ?
श्री तेंदुलकराय नमः !

भारत रतन ! भारत रतन !
हीरा कहाँ,मोती कहाँ 
यह तो बस अपनी भक्ति है 
भजन नहीं,आरती कहाँ ?
श्री तेंदुलकराय नमः !

~यशवन्त यश©

 

14 November 2013

उसका बाल दिवस ......?

उसने नहीं देखा
कभी मुस्कुराता चेहरा माँ का
देखी हैं
तो बस चिंता की कुछ लकीरें
जो हर सुबह
हर शाम
बिना हिले
जमी रहती हैं
अपनी जगह पर खड़ी
किसी मूरत की तरह ....
वह खुद भी नहीं मुस्कुराता
क्योंकि ज़ख़्मों
और खरोचों से भरी
उसकी पीठ
पाना चाहती है आराम....
लेकिन आराम हराम है
उसे जुटानी है
दो वक़्त की रोटी
जो ज़रूरी है
उसके लिये
बाल दिवस की छुट्टी से ज़्यादा!

~यशवन्त यश©

11 November 2013

जिंदगी एक मज़ाक है

जिंदगी एक मज़ाक है
इसे यूं भी जीना पड़ता है 
खुशी को निगलना
गम को पीना पड़ता है

कुछ पाने के लिये
कुछ खोना पड़ता है
जो खो न सके कुछ तो
दर्द को ढोना पड़ता है

यहाँ निशाना भी है
तीर कमान भी है
यहाँ ज़मीन भी है
और आसमान भी है 

उड़ते ख्वाब
भटकते अरमान भी हैं
पूरे होने को तरसते
कुछ फरमान भी हैं

ईमान के उर्वर खेतों में
बेईमान को उगना पड़ता है
भरे पेट हो कर भी
हर दाना चुगना पड़ता है

जिंदगी एक मज़ाक है
इसे यूं भी जीना पड़ता है
कड़वी गोली जीभ में धर के 
बोलना मीठा पड़ता है।

~यशवन्त यश ©

09 November 2013

ऑर्केस्ट्रा ......


Photo:Yanni-'Tribute'














अलग अलग साज
सबकी अपनी अलग आवाज़
उनको बजाने वाले जादूगर
जाने कौन सी छड़ी
लिये फिरते हैं हाथों में
कि बन जाती है
सरगम में गुथी
एक सुरीली धुन

एक सुरीली धुन
जिसके उतार चढ़ाव
खुशी -गम
परिहास और उत्साह को 
थामे रह कर
कभी ढुलका देते हैं
पलकों से आँसू
और कभी
फड़का देते हैं
ललकारती बाहों को

ज़रूर
कोई अलग ही
शक्ति होती है 
ऑर्केस्ट्रा की तराशी हुई
अनगिनत मनकों की
एक संगीत माला में
जिसे फेरने के साथ ही
अस्तित्वहीन हो कर
इंसान
मिल जाता है  
रूहानी सुकूं की
मस्त हवा के झोकों में।

~यशवन्त यश©

07 November 2013

ये बूंदें



तन नहीं मन भिगोती हैं,
देखो बरसती ये बूंदें
मुस्कुरा कर गिरती हैं,
कहीं खो जाती हैं ये बूंदें

हर बार सोचता हूँ सहेज लूँगा
कुछ बूंदें मन की प्याली में
चूक जाता हूँ फिर भी
न जाने किस बेख्याली में

आना जाना जिंदगी का
सिखा देती हैं ये बूंदें
गम ओ खुशी की बारिश बन
कभी हँसा देती हैं ये बूंदें ।

~यशवन्त यश©

03 November 2013

मुनिया की दीवाली

सभी पाठकों को दीवाली की अशेष शुभ कामनाएँ!

आज फिर दीवाली है
आज की रात
आसमान गुलज़ार रहेगा
आतिशबाज़ी के रंगों से
और ज़मीं पर
सजी रहेंगी महफिलें
जश्न और ठहाकों की

मेरे घर के पास रहने वाली
नन्ही मुनिया
मैली से फ्रॉक पहने
कौतूहल से देखती है
इन सब
सपनीली रंगीनीयों को
हर साल
वह बढ़ती है
एक दर्जा उम्र का
मनाती है अपना त्योहार
हर दीवाली की पड़वा को
क्योंकि मावस के बाद की हर सुबह
उसे मिलता है स्वाद
ज़मीं पर बिखरे पत्तलों से चिपके
खील बताशे और
स्वादिष्ट मिठाइयों के
अवशेषों का ।

~यशवन्त यश©
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