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11 May 2013

नहीं......

लू के गरम थपेड़ों में
कहीं पेड़ों की छांह नहीं
सूखते प्यासे हलक तरसते
कहीं प्याऊ की राह नहीं

पुण्य कमाने की लोगों में
अब दिखती कोई चाह नहीं
सड़क किनारे के मॉलों में
फटेहालों की परवाह नहीं

'वाटर पार्कों' में पानी बहता
बिन धुली कारों की शान नहीं
कंक्रीट की छतों पे टंकी रिसती
बिन एसी -कूलर मकान नहीं

लिखना कहना काम है अपना
समझने का कोई दबाव नहीं
हम तो पीते रोज़ ही शर्बत
फुटपाथियों का कोई भाव नहीं

लू के गरम थपेड़ों में
कहीं पेड़ों की छांव नहीं
गरम पसीना अपना साथी
जीवन जीना आसान नहीं

 ~यशवन्त माथुर©

15 comments:

  1. लू के थपेड़ों के बीच माथे पर बोझ उठाये श्रमिकों को देख यही ख्याल आता है , जीवन जीना आसान नहीं !

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  2. acchai darshati kavita...umda bahv

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  3. सच में जीना आसान नहीं ...बहुत बढ़िया रचना

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  4. बहुत संवेदनशील कविता

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  5. अब कोई समझे या न समझे .... दबाव तो है नहीं ... विचारणीय रचना

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  6. बहुत सुंदर और सार्थक ...........सुंदर सोच

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  7. बहुत सुन्दर रचना यशवंत भाई. बधाई.

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  8. वाह बहुत खूब
    शुभकामनायें

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  9. लू के गरम थपेड़ों में
    कहीं पेड़ों की छांव नहीं
    गरम पसीना अपना साथी
    जीवन जीना आसान नहीं

    नहीं ऐसा नहीं है आज भी ६५ प्रतिशत लोग अच्छे हैं बस हमारी आपकी उनसे भेंट नहीं वरना आप लिखते किसके लिए ?

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  10. बहुत बढ़िया और संवेदनशील रचना

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  11. बहुत बढ़िया रचना....शुभकामनायें

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  12. लू के इन थपेड़ों में कितने जीवन जीते हैं ... मजबूरियों को ढोते हुए ...

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  13. बहुत सुन्दर रचना है, शुभकामनायें.

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  14. बेहतरीन!
    आज के सच को दर्शाती.. कैसे बे-दिल हो चुके हैं हम सब..

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