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28 February 2012

मन के ठंडे मौसम मे.......

कुछ लाइन्स (पता नहीं कोई अर्थ निकलता भी है या नहीं ) यूं ही मन मे आईं तो अचानक लिख गयीं --
 मन के ठंडे मौसम मे, लू चलती है यादों की
कुछ खुद के अरमानों की , कुछ किसी के वादों की
मैं सोच रहा पल पल क्यूँ ,धूल भी रोने लगती है
बिखरा कर अपने हर ज़र्रे को ,बेनूर सी होने लगती है
है यही प्रीत की रीत, बीत रही कुछ बातों की
सपनीली बहारों की, कुछ अधूरी मुलाकातों की
मन के ठंडे मौसम मे, अब लू चलती है यादों की


22 February 2012

सभ्यता या ......?

[कल पापा के साथ किसी काम से शहर की ओर निकलना हुआ। टेम्पो मे बैठे हुए लखनऊ के आई टी चौराहे के पास जो नज़ारा देखा उस पर पेश हैं मेरे कुछ विचार --]

चलती जा रही थी
एक राह पर 
फोर्ड गाड़ी
जिसे मैं
अफोर्ड
नहीं कर सकता
गुजरती जा रही थी
चौराहे चौराहे हो कर
अपनी मंज़िल की ओर
एक मेम
कान में मोबाइल
हाथ मे
स्टीयरिंग थामे
साब के साथ
जा रही थीं कहीं
तेज़ रफ्तार
तेज़ तर्रार
देख कर जिन्हें
सहम कर
थम जाए कोई 
मैंने सोचा
होंगी कोई
मुझे क्या
न नाता
न रिश्ता
न जान
न पहचान
उनका जीवन
वो जानें
मगर
कार की खिड़की से
बीच सड़क का
श्रंगार करते
संतरे और
केले के छिलके
कर रहे थे मजबूर
दर्शन करने को
सभ्यता
शिष्टता और
शालीनता के
जीवंत प्रतीक (?) का
दे रहे थे शिक्षा
साहब बन कर
यूं ही
अपनी शान
दिखाने की
पर
न जाने क्यों
मुझे हो रहा था
गर्व
खुद के
सड़क छाप
होने पर । 

20 February 2012

मजबूरी है....

देख रहा हूँ
फिर उस ओर
पीछे मुड़ कर
की थी जिधर से शुरुआत
चलने की

बहुत पीछे कहीं
गुमनाम हो कर
खो चुके हैं अस्तित्व
शुरुआती कदमों के निशान
मगर फिर भी
मन हो रहा है
फिर से उस ओर जाने को
ढूंढ लाने को
बीता कल
प्रकट रूप मे
जो संभव नहीं
चाहने से

बस उस ओर
देखते रहना है
रह रह कर
ताकना है
उस जमीं को
बुला रही है
खींच कर
अपनी ओर 

अफसोस
मजबूरी है
आज मे जी कर
बुनते रहना है
आने वाले 
कल के ख्वाब
बीते कल की
तड़प से
बेखबर
हो कर  ।



18 February 2012

अगर कभी मिले तो.......

न मिलना मुझको है
न मिलना तुमको है
फिर क्यूँ करूँ शक
नियति की नीयत पर
क्यूँ करूँ शिकायत
जो मन मे भीतर तक
दबी हुई है
बस हो चुका
ये क्षणिक सा मिलना
तुम अपनी राह
मैं अपनी राह
है बस एक ही चाह
वक़्त की चौखट पर
अगर कभी
फिर मिले तो
यादों की गठरी से
निकाल लेना
वो तस्वीर
जिसे बनाया था
हमने
अपनी बातों से!

14 February 2012

कार्टून हूँ मैं......

जो कह सके न कोई
वो तीखी बात हूँ मैं
जो सह सके न कोई
वो जज़्बात हूँ मैं

मैं प्रेम भी हूँ
विरह भी हूँ
राजनीति भी हूँ
कूटनीति भी हूँ
मैं वोट भी हूँ
चोट भी हूँ
मैं खारा भी हूँ
मीठा भी हूँ

मैं आग हूँ तूफान हूँ
मैं क्रान्ति का राग हूँ
मैं मसखरा किन्तु खरा
शीतलता औ अनुराग हूँ

तुम जो समझना चाहो
समझते रहना मुझको
कभी शैतान का अक्स
कभी अफलातून हूँ मैं

कार्टून हूँ मैं !

11 February 2012

श्री गूगलाय नमः !

गूगल अगर तू न होता
तो गूगोल* का भूगोल क्या होता
क्या सिमट आती इस तरह
दुनिया एक क्लिक की दूरी पर
क्या कॉपी -पेस्ट से
कोई असाइनमेंट तैयार होता
न लिखी जा पाती कोई थीसिस
गुजरे कल के पन्नों से
सुनना फ्री का म्यूज़िक
न इतना आसान होता
न होता हमकदम तेरा ये ब्लॉग्स्पॉट
तो क्या लिखता मैं
राईटर भी एडिटर भी
कैसे बन सकता मैं
न लिखी जा पाती कोई 'बुक'
किसी के 'फेस' को देख कर
बराबर सब होता तो
माइनस 'प्लस' का क्या होता
गूगल तू  देवता है !
सिर्फ देता, न लेता कुछ तू यूजर से
डाटा तो एक बूंद है
जिसे मथता तू  'वेब' समुंदर से
नमन तुझ को तू
मेरे 'सर्च' सुमन स्वीकार कर के
मनचाहे लिंक्स की
शीघ्र ही बौछार कर दे!

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*गूगोल =खरब से अधिक बड़ी संख्या। 

(यशवन्त माथुर)

05 February 2012

वोट तो देना ही है

 उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो गयी है। यह पंक्तियाँ एक  वोटर के मन की बात को कहने का प्रयास हैं जिसने जाति -धर्म-क्षेत्र और भाषा आदि से परे एक सही इंसान को इस बार अपना वोट देने की कसम खाई है --

है तस्वीर का रुख जो स्याह
इस रुख को पलटना ही है
है जो अब हाथ में मौका
कुछ तो कर गुजरना ही है

माना कि हूँ अनजान
कहीं खोया सा रहता हूँ
कर कर के इंतज़ार
गुबार दबाया सा रहता हूँ

पर अब न छोडूंगा तुमको
याद रखना जाग गया हूँ
तिलिस्मी ख्वाबों से
हकीकत पर आ गया हूँ

है यही वक़्त कि अब बेरहम होकर
बीती ठोकर को इक चोट तो देना ही है
निकलकर कमरों से बाहर खा लो कसम
जो भी हो अब अपना वोट तो देना ही है 

01 February 2012

जी ना हुआ कि, जी का जंजाल हुआ

जी ना हुआ कि, जी का जंजाल हुआ। 
हड्डी बची न एक, कंकाल भी कंगाल हुआ। । 

वो रास्ते मे मिला मुझ को, मांग रहा था भीख। 
सीने से चिपका शिशु ,रहा भूख से चीख। । 

पर कानों मे ढिबरी बांधे ,साहब सड़क पर नाच रहे थे  । 
चढ़ा आँख पे काला चश्मा ,इंडियन ,इंडिया बाँच रहे थे। । 

वो क्या जानें क्या है भारत ,गली कूचे मे बसता है जो। 
जूठन चाटता फिरता बचपन ,बस्ते को तरसता है जो। । 

अन्नदाता हैरां ,परेशां ,देख खेत पर काली छाया । 
पगडंडी पर खुदती नींव ,बिल्डर आया ,मुसीबत लाया। ।  

चांदी चम्मच नसीब न जिसका,जो झोपड़ की संतान हुआ ।
उसका भाग अभागा जीवन ,देह त्याग आसान हुआ  । । 

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कानो मे ढिबरी--मोबाइल का हेड फोन
चांदी चम्मच--अँग्रेजी का मुहावरा (Born with a Silver spoon)

यशवन्त माथुर
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