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30 January 2012

किताबों के पन्नों पर


गांधीजी की पुण्य तिथि पर प्रस्तुत हैं मम्मी की लिखी कुछ पंक्तियाँ  ---


(चित्र साभार: गूगल इमेज सर्च )



बापू गांधी को टांग दीवार पर
श्रद्धांजलि देने का स्वांग करते 30 जनवरी पर
चलते नहीं उनकी लीक लकीर पर
बना महात्मा फूल चढाते दरो दीवाल  पर
कैसा अंजाम किया इस फकीर पर
चाहते नहीं संसार के प्राणियों से प्यार करना पर
हरि व जन का  क्या जानें सम्मान करना पर
हे राम का बंदा बलिदान हो गया देश पर
क्या जाने सावरमती का संत ऐसे बर्ताव -व्यवहार पर 
क्या जाने क्या माने गांधी को अपने अभिमान पर 
सच के प्रहरी को धोखा दे रखा है इस कदर पर 
बदनाम करते हैं अपने दीन ईमान धरम पर
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई भाईचारे का पाठ पढ़ाया पर 
भाई भाई मे एकता का संदेश बताया -समझाया पर
लोगों ने मानव धर्म का  कदर न चाहा न जाना पर 
मानव का मानव से ये नाता समझ न आया पर 
सबको सन्मति दे भगवान का भजन गाया पर 
अब तो निगाह है सिर्फ ले लेने पर
जान देने की नहीं ध्यान है ले लेने पर 
दिल दिमाग मे छाया है ध्यान सिर्फ एश-ओ-आराम पर
सत्य व अहिंसा को रखकर ताक पर 
झूठ और बेईमानी से काम करते हाथ जोड़ते हर बार पर 
करते अपमान अहिंसा के पुजारी का हर बात  पर
छोड़ कर संसार चला गया संत, देश की बाग डोर अब तेरे हाथों पर 
अब तो ऐसा ही आया है ज़माना, सत्य अहिंसा किताबों के पन्नों पर

श्रीमती पूनम माथुर

27 January 2012

इस बसंत के मौसम में क्यों ...

यह कविता 13 दिसंबर 2006 को आगरा के सर्द मौसम मे धूप का आनंद लेते हुए अपनी डायरी में लिखी थी । एक बार पहले भी  इसी ब्लॉग पर प्रस्तुत कर चुका हूँ आज पुनः प्रस्तुत है--












इस बसंत के मौसम में क्यों 
पतझड़ जैसा लगता है,
और मिलन की ख़ुशी मनाते,
हम को विरहा सा लगता है 

इस बसंत के मौसम में क्यों 
पतझड़ जैसा लगता है

किसी डाल पर कोयल गाती,
स्वप्नों के रंगीले गीत,
हम को भी सुन सुन कुछ होता,
पर कपोत न दीखता है 

इस बसंत के मौसम में क्यों 
पतझड़ जैसा लगता है

दूर हुआ मनमीत मगर,
क्यूँ न यादों से हटता है,
आँखों से झर झर झर आंसू,
सागर सूखा सा लगता है

इस बसंत के मौसम में क्यों 
पतझड़ जैसा लगता है.

 
आप सभी को बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

25 January 2012

सलाम !

सलाम ! सशस्त्र प्रहरियों को
जिनके लिए पूरा देश ही एक घर है
और उसकी हिफाजत वो करते हैं
खुद कुर्बान हो कर

सलाम! उस किसान को
जो उपजाता है अन्न
विपन्न रह कर भी जो
मिटाता है सवा अरब की भूख

सलाम! उस मजदूर को
जो सच्चा निर्माता है
पर रहता है गुमनाम
इमारत की नींव की तरह

सलाम ! नन्ही मुस्कुराहटों को
जो भुला देती हैं सारे गम
गिले शिकवे अपनी निश्छलता से
प्यार से गले लग कर

सलाम ! वीर नारियों को
जो जननी हैं अखंड,और
गर्वित गणतन्त्र की 
अनूठी संस्कृति की

सलाम ! आपको और हम को
सलाम हर उस गीत को ,कविता को
जो करती है नमन ,अनेकता मे एकता को
जिसका अक्षर अक्षर एक मंत्र है 
जिसकी आत्मा मे बसा सच्चा गणतन्त्र है।

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सभी पाठकों को गणतन्त्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ! 
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20 January 2012

खुशहाली ,चोट और चोर ......(मम्मी की 2 नयी कविताएं)

आज एक बार पुनः पढ़िये मम्मी की 2 नवीनतम कविताएं ---
 




खुशहाली  
हाथ खाली,पेट खाली,थाली खाली।
जेब खाली,आना खाली,जाना खाली।
फिर क्यों करते हो गैरों की दलाली।
फिर क्यों करते हो चोरों की रखवाली।
क्यों नहीं लाते हो भारत मे खुशहाली। ।

*

चोट और चोर

चोट भीतर घाव करता है,
चोर बाहर घाव करता है।

चोट का निशान मिटा नहीं करता है,
चोर दगाबाजी करता है।

चोट समय-समय पर दर्द दिया करता है,
चोर समय-समय पर माल उड़ाया करता है। ।

(पूनम माथुर)

15 January 2012

उड़ता रहूँ

अब गिद्ध नहीं हैं आसमां में
तो सोच रहा हूँ
बेखौफ परिंदों की तरह
भर लूँ उड़ान
नीले आसमां में
और जो उड़ूँ
तो उड़ता रहूँ
अनंत ऊंचाइयों तक
जहां वजूद हो
सिर्फ मेरा
जहां सिर्फ
मेरी ही आवाज़ हो
मेरा ही नीरस गीत हो
और मेरा ही साज हो
उस निर्जन मे भी
मैं जानता हूँ
अदृश्य रूप में
कोई तो होगा साथ
जो थामेगा
रोकेगा
रहने देगा
गतिमान
ऊपर की ही ओर 
बहुत
डरता हूँ
नीचे गिरने से
क्योंकि
गुरुत्वाकर्षण का रूप
धर कर 
भूखा काल
नीचे 
कर रहा है
मेरी प्रतीक्षा।

12 January 2012

चलना तो अकेले ही है !

कुछ किस्सों कहानियों में
फिल्मों में
प्रेम और वियोग की
कविताओं में
कहीं कोई मिलता है
कोई बिछड़ता है
सुखांत और दुखांत में
कुछ पल आते ही हैं
एकांत के
काफिला बनता है
नायक चलता है
अपनी राह
संघर्ष और अंतर्द्वंद
साथ चलते हैं
बिखरते हैं
जो भी हो
अस्तित्व एक का ही होता है
नायक या तो जीता है
या हो जाता है कुर्बान
धारा एक ही होती है
विचारों की
बस बदलते हैं चित्र
और दृश्य
हजारों के साथ
मिले हुए हाथ के साथ
कारवां के कदमताल में
आखिर
चलना तो एक को ही है
अकेले ही है !

09 January 2012

अभी बाकी है

कुछ धूप निकली पर धुंध अभी बाकी है ।
बादलों के पर्दे को हटना अभी बाकी है। । 

बाकी है निशां इक जख्म का जो गहरा था ।
अक्स ने दिया दगा हर शख्स पे पहरा था । ।

खानी हैं ठोकरें पथरीली राह अभी बाकी है।
आहों की है कसम कि चलने की चाह अभी बाकी है। ।

05 January 2012

संपन्नता का आधार


(चित्र सौजन्य:गूगल सर्च)
हर रोज़
चौराहे पर
दिखती है भीड़
लोगों की
कारों मे
आते जाते लोगों की

सरसराते भागते लोगों की
बसों से झाँकते लोगों की
टेंपुओं मे ठुसे हुए लोगों की
साइकिल मे चलते लोगों की
कदमताल करते लोगों की

(चित्र सौजन्य:गूगल सर्च)
घिसट घिसट कर चलते लोगों की                                    
फुटपाथों पर सोते लोगों की
नंगों की ,लंगड़ों की
अंधों की

और उसी भीड़  में कहीं
फावड़ा छैनी हथोड़ा थामे भी
दिख जाते हैं
नर -नारी
और गोद मे शिशु
जिनकी अपनी ही
छोटी सी दुनिया है
दो कमरों के
छोटे से घर मे सिमटी हुई
जिसके ऊपर डली है
टीन की छत

फावड़ा थामे वो हाथ
मैले से कपड़ों मे सिमटे वो लोग
आधार हैं
संपन्नता का
फुटों -मीटरों ऊंची दीवारों पर
एक पटरे पर अटकी रहती है
जिनकी साँसों की डोर
रहते हैं विपन्न
उपेक्षित
गुमनाम
ठीक वैसे ही
जैसे अपने मे खोई रहती है
अट्टालिकाओं की नींव ।

(घर के सामने बन रहा एक मकान अब फिनिशिंग पर है ....पाड़ लगाए मजदूर आज कल एक दीवार पर प्लास्टर करने मे जुटे हैं,घने कोहरे मे घर के अंदर बैठ कर जब मैं आराम से यह पंक्तियाँ लिख रहा हूँ वो मजदूर खुले मे अपना काम कर रहे हैं....इन पंक्तियों की प्रेरणा वही मजदूर हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता। )

03 January 2012

कैलेंडर


नये साल पर
दीवारों से उतर जाते हैं
पुराने कैलेंडर
और टंग जाते हैं
नये
जिन पर बने होते हैं
कुछ चित्र
मन भावन

कुछ चित्र
जो जुड़े होते हैं
आस्था से
विश्वास से

कुछ चित्र
जिन पर
ठहर सी जाती हैं
नज़रें
सुकून की तलाश मे

कुछ चित्र
जो मूक हो कर भी
बोलते हैं
जिनकी आवाज़ को
कान नहीं
दिल सुनता है
और तन
महसूस करता है

दीवारों पर टंगे
कैलेंडर सिर्फ
कैलेंडर नहीं होते
जीवन होते हैं

तारीख के
बदलने पर भी
मूड के बदलने पर भी
उत्साह और गुस्से मे
खुशी और गम मे
कैलेंडर
रहता है साथ
भूत,वर्तमान
और भविष्य मे 
एक अभिन्न
मित्र की तरह।

01 January 2012

2012 !

2012 !
अब जब तुम आ ही गए हो
तो सुन लो
एक मेरी भी बात
मेरे पास नहीं
अलंकार
तुम्हारे स्वागत को
नहीं हैं
शुद्ध हिन्दी मे पगी
उपमाएँ
नहीं है
काल्पनिक दृश्य
सूर्योदय के
आसमान मे उड़ते
पंछियों के

बस ये कुछ शब्द हैं
जो रच रहा हूँ
वास्तविकता से कोसों दूर
निर्वात मे बसने वाली
अपनी अनोखी ही
दुनिया मे
दिवास्वप्नों के चारों ओर
घूम घूम कर

बस हाथ जोड़े खड़ा हूँ
तुम्हारे सामने
तुम आओ
ज़रूर आओ
क्योंकि मेरी अंतहीन
महत्वाकांक्षाएँ
आस लगाए हैं
इस बार पूरी होने की!

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 इस ब्लॉग पर आने वाले सभी पाठकों को नववर्ष 2012 सपरिवार मंगलमय हो!
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