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28 December 2012

कैसी सर्दी आई है ?


धुंध कोहरे की जमी दिन भर
धूप छुपी शरमायी है
मफ़लर, टोपी, शॉल और स्वेटर
निकला कंबल, रज़ाई है

देखो सर्दी आई है  ....

हीटर, गीजर दौढ़ता मीटर
सुस्ती मे अब चलता फ्रीजर
हाट मे सस्ती मिलती गाज़र
हलवे की रुत आई है

देखो सर्दी आई है   .....

मूँगफली के दाने टूटते
रेवड़ी- गज़क के पैकेट खुलते
चाय -कॉफी की चुस्की लेते
गुड़ देख चीनी लजाई है

देखो सर्दी आई है   ......

सिर से पैर तक खुद को ढ़क कर
मौसम के अमृत को चख कर 
बाहर जब नज़र घुमाई है

नंगे जिस्मों पर ओस की बूंदें
मुझे कभी समझ न आई है

कैसी सर्दी आई है ?

©यशवन्त माथुर©

25 December 2012

अगर कुछ दे सको तो ........

सेंटा !
सुना है
तुम बिना मांगे
अपनी झोली से निकाल कर
खुशियाँ बांटते हो 
मुस्कुराहटें बांटते हो
और निकल लेते हो
अपनी राह
बिना कुछ कहे
बिना कुछ सुने

पर
आज
मैं मांगुंगा
और तुम्हें देना होगा
सिर्फ मुस्कुराओगे नहीं
तुम्हें बोलना भी होगा

तो सुनो
इस क्रिसमस पर
पुरुष के मन को
लज्जा ,शील, सौंदर्य
और कोमलता से भर कर
स्त्री के मन को
दृढ़ता
और बाहुबल से भर कर
दोनों की आँखों को 
सहानुभूति की नज़र
देकर 
घुमा दो अपनी
जादू की छड़ी
और बदल दो
भोग पर आश्रित
इंसानी सोच को

सुना तो ये भी है
कि बच्चों पर
जान छिड़कते हो तुम
तो
कुछ ऐसा भी कर दो
कि नन्हें अधरों की
भोली मुस्कुराहट
बनी रहे हमेशा

सेंटा!
अगर कुछ दे सको तो
पूरी कर देना
बस इतनी सी चाह
इस क्रिसमस पर !

©यशवन्त माथुर©

21 December 2012

सोचो दोस्तों..........( बहुत पुरानी पंक्तियाँ)

कल अचानक एक पुरानी डायरी का पन्ना मिल गया । इस पन्ने पर 4 अगस्त 2000 को राधा बल्लभ इंटर कॉलेज दयालबाग आगरा (तब मैं कक्षा -11 का छात्र था) के क्लास रूम की स्थिति पर लिखी मेरी पंक्तियाँ दर्ज़ हैं।यह पंक्तियाँ एकाउंटेंसी (बालमुनी कश्यप सर) के पीरियड के बाद वाले खाली पीरियड मे अपनी सीट पर लिखी थी।  हालांकी यह कॉलेज अपने अनुशासन और पढ़ाई के लिये आगरा मे प्रसिद्ध है फिर भी हमारे साथी मौका देखते ही 'अपनी' पर आ ही जाते थे :)

इन पंक्तियों को बिना किसी सुधार के उस पन्ने से उतार कर जस का तस आज अपने ब्लॉग पर भी प्रस्तुत कर रहा हूँ---


सोचो दोस्तों
हम किधर जा रहे हैं
क्लास मे बैठ के
फिल्मी गाना गा रहे हैं।

सामने हमारे
'सर' पढ़ा रहे हैं
लेकिन हम उनकी
हंसी उड़ा रहे हैं।

पूछते जब वो हैं कुछ
बता नहीं पाते हम
इसी वजह से रोज़
डंडे खूब खाते हम।

कॉलेज आते हैं
घर से कुछ खा कर नहीं हम
लेट हो कर इसीलिए
डंडे खूब खाते हम ।

सोचो दोस्तों
किधर जा रहे हैं हम
विद्या के मंदिर को
मूंह चिढ़ा रहे हम ।

सोच लो विचार लो
दृढ़ निश्चय ठान लो
सब से बड़ी विद्या है
मन मे बैठाल लो।


©यशवन्त माथुर©

18 December 2012

मर्दानगी की ख़ुदकुशी ......

पिशाचत्व का
रूप देख कर
उस रात से
शर्मसार
पौरुषत्व
नज़रें गड़ाए
ज़मीन पर
मना रहा है
शोक
मर्दानगी की
ख़ुदकुशी का

हाँ
ख़ुदकुशी
जो रोज़ करती है
मर्दानगी
कभी यहाँ
कभी वहाँ
छपती है
सुर्खियों में
तीर-तलवार या
तोप नहीं ...
दम तोड़ती
गूंगी खबर
बन कर

और बेचारा
पौरुष
अब तलाश में है
नयी उपमा की
ताकि भर सके दंभ
खुद के होने का
इसी दुनिया के
किसी पर्दानशीं
कोने में

©यशवन्त माथुर©

(दिल्ली की शर्मनाक घटना पर मेरी प्रतिक्रिया)
 

15 December 2012

कुछ बातें ....

कुछ बातें
होती हैं
हाथी के दांतों की तरह
जो सोची जाती हैं
कहीं नहीं जातीं
जो कही जातीं हैं
सोची नहीं जातीं
फिर भी
कभी मजलिसों में 
महफिलों में
या तीखी बहसों में
कह दी जाती हैं
हाथी दांत के जैसा
खुद का
अक्स दिखाने को।

©यशवन्त माथुर©

13 December 2012

वीरता का पुरस्कार ......?

हिंदुस्तान-लखनऊ-13/12/2012 (पृष्ठ-16)
वो
एक माँ है
बेटी है
पत्नी है
उसने

11 साल पहले
संसद पर
गोली खाई है
वो वीर है
इतिहास के पन्नों पर

उसकी वीरता
आज लगा रही है झाड़ू
दिल्ली की सड़कों पर
निर्भर हो कर
ठेकेदार के करम पर

क्या वो झाड़ पाएगी
कागज के दबे पन्नों से धूल
क्या वो निकाल पाएगी
अलमारी मे छिपी
उस मोटी फाइल का बंडल
जिसमें छुप कर
कुंभकरणी नींद सो रहा है
उसकी वीरता का सबूत ?

या
यूं ही
चार हज़ार की
चक्की में
पिसता उसका जीवन
हर साल छपा करेगा
अखबार के पिछले पन्ने पर ?

(आज के 'हिंदुस्तान' मे छपे समाचार से प्रेरित-देखें चित्र)

©यशवन्त माथुर©

सफर


फिर एक नया पड़ाव
फिर एक नया मोड़
एक नया रास्ता
फिर एक नया दौर
उसी पुराने सफर का
जिसका सिलसिला
चलता चला आ रहा है

तेज़ रफ्तार दौड़ती
वक़्त की इस बस मे बैठा
बस यही सोच रहा हूँ
भोथरी होती
कलम की नोंक की तरह 
बदलाव की आस लिये
यह जीवन भी
कभी देखेगा
अपना अंतिम दिन।

©यशवन्त माथुर©

12 December 2012

जाड़े की नर्म धूप ......

बादलों संग खेलते कूदते
मंद सूरज  की
मस्ती में
जाड़े की नर्म धूप
पूनम के चाँद की
बिखरती चाँदनी
की तरह
बंद आँखों के पार
मन के शून्य में
अपने
क्षणिक एहसास के साथ
कहती है
इस पल को 
जी भर जीने को
क्योंकि
दुनिया के 
दूसरे कोने में
अंतिम सांसें गिनता
अंधेरा
कर रहा है
उसका इंतज़ार!

©यशवन्त माथुर©

09 December 2012

फर्क नहीं पड़ता

आए कोई न आए इस दर पर
फर्क नहीं पड़ता
नकाब मे चेहरा छुपा कर
कुछ कह जाए
फर्क नहीं पड़ता

शब्दों की इन राहों पर
शब्दों के तीखे मोड़ों पर
शब्दों के भीड़ भरे मेलों में
मिल जाए कोई या बिछड़ जाए
फर्क नहीं पड़ता 

न आने से पहले कहा था कुछ
न जाने से पहले कुछ कहना है
इस लाईलाज नशे मे डूब कर
खुश होना कभी बिखरना है

यह महफिल नहीं रंगों की
न रंग बिरंगे पर्दे हैं
कभी गरम तो सर्द हवा संग
एक मन और उसकी बाते हैं

हम तो चलते चलते हैं
यूं ही कुछ कुछ कहते हैं
कुछ मे कभी कुछ न मिले तो
अर्थ अनर्थ को
फर्क नहीं पड़ता। 

©यशवन्त माथुर©

06 December 2012

सन्नाटा ......



यूं तो अक्सर
दिन और रात
कटते हैं
शोर में
फिर भी
भटकता है मन
कभी कभी
सन्नाटे की तलाश में

सन्नाटा
जो घोर अंधेरी रातों में
साथ साथ चलता है

सन्नाटा
जो डर और दहशत के पलों मे
बोलता है
काँपते होठों की जुबां

सन्नाटा
जो हवा मे तैरते
शास्त्रीय स्वरों और रागों की
छिड़ी तान के साथ
बंद आँखों और खुले कानों को
सुकून देता है

वो सन्नाटा
वो बोलती खामोशी
और फिजाँ मे महकती
रात की रानी*
बीते दौर की कहानी
बन कर
अब कहीं खो चुकी है
चीखते राज मार्गों के
मर्मांतक शोर मे
भोर से
भोर के होने तक। 

----
*रात की रानी एक फूल होता  है 

©यशवन्त माथुर©  


02 December 2012

यह कविता नहीं....

बस
कुछ टूटे फूटे शब्द
नियमों से परे
कभी कभी
ले लेते हैं
एक आकार
कर देते हैं
कल्पना को साकार

जिनमे न रस
न छंद
न अलंकार की सुंदरता
जिनमे न हलंत
न विसर्ग
न विराम और
मात्राओं की जटिलता

बस है
तो सिर्फ
एक मुक्त
उछृंखल
अभिव्यक्ति
अन्तर्मन की

पंक्ति !
हाँ यह
बिखरे शब्द
इधर उधर उड़ते शब्द
कुछ कहते शब्द
सिर्फ कुछ पंक्तियाँ हैं
कविता नहीं

क्योंकि
कुछ कहना आसान है
शब्दों को ऊपर नीचे
सजाना आसान है
आसान है तुकबंदी
भावनाओं की जुगल बंदी
आसान है
मर्म स्पर्शी लिखना
पर बहुत कठिन है
कविता रचना । 

©यशवन्त माथुर©

 

26 November 2012

श्रद्धांजलि........(26 नवंबर विशेष)

श्रद्धांजलि
उन अनजानों को
जिनकी आँखों में
कभी बसा करते थे
कुछ ख्वाब 
सुनहरे कल के

श्रद्धांजलि
उन जाने पहचानो को
जो दर्ज़ हैं
सरकारी सफ़ेद पन्नों पर
शहीदी की अमिट स्याही से

आज
न वो अनजाने हैं
न जाने पहचाने हैं
न वो रौब है
न ख्वाब है

ज़मीं पर रह गए
अपनों के जेहन में
पल पल की घुटन है
यादें हैं
दर्द है
रह रह कर बहता
आंसुओं का सैलाब है

स्मृति चिह्नों पर
स्मारकों पर
बड़े बड़ों के 
चिंतन -मनन
स्मरण और संस्मरण
के दिन
मेरा कुछ कहना
कुछ लिखना
व्यर्थ है
क्योंकि
सांत्वना
और हरा करती है
दिल पर लगी चोट को। 

©यशवन्त माथुर©

24 November 2012

फ़लस्तीन बच्चों के प्रति .......

इजरायल द्वारा फ़लस्तीन पर मिसाइल हमले जारी हैं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग 80% फ़लस्तीन बच्चे तनाव के शिकार हो गए हैं। 

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के निदेशक श्री सुधाकर अदीब जी सहित कई मित्रों ने आज इस चित्र को फेसबुक पर शेयर किया है। 

इस चित्र को देख कर जो कुछ मन मे आया उसे शब्द देने की यह एक साधारण सी कोशिश है--
















रोता बचपन,
सिसकता बचपन
खुशी की तलाश में
भटकता बचपन

बम धमाकों की
सिहरन कंपन
खोते अपने
और नटखट पन

तोप गोलों की रार
काल बन
छीन रही चैन
चहकता उपवन

 आने से पहले यौवन
क्या नहीं देख रहा बाल मन
आकुलता व्याकुलता की  यूं
कब तक मार सहेगा बचपन

याद कर के
अपना बचपन
शायद कुछ तो
समझे दुश्मन

है कैसा यह
वहशीपन
रोता बचपन,
सिसकता बचपन

शांति की बाट
जोहता बचपन ।


©यशवन्त माथुर©

22 November 2012

नादान परिंदे......तब और अब

मेरी इस फेसबुक कवर फोटो पर वर्षा शुक्ला जी ने 'नादान परिंदे' लिख कर अपनी टिप्पणी दी थी। उनकी टिप्पणी से मिले आईडिया के आधार पर उस समय जो मन मे आया वह सबसे पहली 4 पंक्तियों के रूप में फेसबुक पर ही लिख दिया था। आज उन पंक्तियों को और बढ़ा कर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-


 कभी नादान हुआ करते थे,अब शैतान हुआ करते हैं,
कभी बेखौफ उड़ा करते थे,अब चलने में सोचा करते हैं
परिंदे हम तब भी थे,परिंदे हम अब भी हैं
लम्हे तब साथ चलते थे,अब लम्हों में जीया करते हैं 

कुछ सपने तब भी बुनते थे, कुछ सपने अब भी बुनते हैं 
घूम फिर कर नयी राह पर,हर पल आ पहुँचते हैं 
परिंदे हम तब भी थे,परिंदे हम अब भी हैं 
तब चलते थे हाथ थाम कर,अब मन भर दौड़ा करते हैं 

कभी बातें खुद से करते थे,अब बातें सब से करते हैं 
कभी पन्नों से खुद की कहते थे,अब मन की सब से कहते हैं 
परिंदे हम तब भी थे,परिंदे हम अब भी हैं 
तब राहों की बाट जोहते थे,अब राहों पे सफर करते हैं  

कभी नादान हुआ करते थे ,अब शैतान हुआ करते हैं 
कभी लिख कर फाड़ा करते थे,अब हर अक्षर सहेजा करते हैं  
परिंदे हम तब भी थे,परिंदे हम अब भी हैं 
तब ज़मीन पे फुदका करते थे,अब आसमां में उड़ा करते हैं।  

©यशवन्त माथुर©

 

17 November 2012

कुछ लोग ऐसे भी हैं ......

न दो हाथ, न दो पैर, मगर जिंदगी जीते ही हैं
सर पे न हाथ,न साथ में साया किसी का
साँसों की मजबूरी, कि दर बदर घिसटते ही हैं
मेरे चारों ओर, कुछ लोग ऐसे भी हैं 

दिन मे तोड़ते हैं पत्थर,रात सड़क पे सोते ही हैं
खाते अमीरों की जूठन ,कीचड़ को पीते ही हैं
आसमां है जिनकी छत,तन पर चिथड़े ही हैं
मेरे चारों ओर, कुछ लोग ऐसे भी हैं

गुजरती रेलों,उड़ते जहाजों को देख कर
सजी धजी मेमों,सूटेड साहबों को देख कर
ये 'ज़ाहिल' भी साहिल के सपने देखते ही हैं
मेरे चारों ओर, कुछ लोग ऐसे भी हैं   । 
 

©यशवन्त माथुर©

15 November 2012

ख्यालों के रास्ते

बढ़े अजीब होते हैं
ये ख्यालों के टेढ़े मेढ़े
रास्ते
जिन से गुज़र कर
गिरते उठते शब्द
बन बिगड़ कर
धर लेते हैं
कोई न कोई रूप 
और आखिरकार 
पा ही लेते हैं
अपनी मंज़िल

ख्यालों के
इन टेढ़े मेढ़े रास्तों पर चलना 
कभी शब्दों की
मजबूरी होती है
और कभी
स्वाभाविक इच्छा

क्योंकि
संघर्ष से ही
बिखरे शब्द
एक हो कर
रूप धरते हैं
गद्य या पद्य का। 

©यशवन्त माथुर©

13 November 2012

आज शाम को ....

 आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!

आज शाम को 
मैं नहीं चाहता 
देखना 
बेबस हो कर 
कराहते रंगीन 
आसमान को 

आज शाम को 
मैं नहीं चाहता एहसास  
पटाखों के तेज़ धमाकों से 
हिलती धरती 
और बिंधते वायुमंडल में 
घुलती बारूद की तीखी गंध का 
जो लीलती है कई बेज़ुबान जीवन 
बिना कहे, बिना सुने 

आज शाम को 
मैं चाहता हूँ देखना 
खुशबू से महकता 
क़हक़हों से
चहकता आसमान 
दीयों से रोशन धरती  
खुशी से झूमते बच्चे 
कमर तोड़ महंगाई के दौर में भी 
कुछ पल मुस्कुराते चेहरे 
और भेदभाव से परे 
एक  सुकून देने वाला 
अनकहा एहसास !

©यशवन्त माथुर©

07 November 2012

बदलते मौसम का असर नज़र आने लगा है......

बदलते मौसम का असर नज़र आने लगा है
6 बजे से शाम को अंधेरा छाने लगा है
खिली होती थी इस समय कभी धूप जून के महीने में
घूमते घूमते धरती को चक्कर आने लगा है
7 बजे खोलता है सुबह सूरज भी अपनी आँखें
बादलों की रज़ाई में आसमां छुप जाने लगा है
बदलते मौसम का असर नज़र आने लगा है
एक चादर मे सिमट कर फुटपाथ कंपकपाने लगा है
मावस की कालिख हो या चाँदनी की चमक में
ओस की बूंदों को गिरने में मज़ा आने लागा है 
बदलते मौसम का असर नज़र आने लगा है।

©यशवन्त माथुर©

05 November 2012

क्षणिका...

इन ठंडी रातों में
मन के वीरान
मैदान पर  
जहां तहां उग आयी
ख्यालों की दूब पर
चमकती बूंदों को देख कर
ऐसा लगता है जैसे
अंधेरा भी रोता है
ओस के आँसू !

©यशवन्त माथुर©

01 November 2012

ओ चाँद!

ओ चाँद!
कोशिश करता हूँ
समझने की
अक्सर
तुम्हारी कहानी को
पूर्णिमा के दिन
जब तुम दिखते हो
किसी झरोखे से
पहाड़ों के बीच से
या ऊंचे पेड़ों की
किसी शाख के किनारे से
दिखाते हो एक झलक
मुस्कुराते हुए
बादलों के बीच
तुम्हारी लुका छिपी से
मैं कभी झल्ला भी जाता हूँ
पर
जब कभी देखता हूँ
तुम्हारी आँखों में आँखें डाल कर
ऐसा लगता है
जैसे धरती की गोद में
सिर रख कर
तुम रो पड़ोगे
ऐसा कौन सा दर्द है
जिसे अपने में समेटे
अँधेरे की चादर
ओढ़ लेते हो
ओझल हो जाते हो
अमावस की रातों में
आज बता दो
ओ चाँद !
मैं सुनना चाहता हूँ
तुम्हारी कहानी
करना चाहता हूँ
अटूट दोस्ती तुम से
तुम खामोश क्यों हो
क्यों नहीं सुन रहे
मेरी बातों को
अब चुभ सी रही है
तुम्हारी ये हंसी
कोई जवाब नहीं
आखिर क्यों
ये मौनव्रत
लिया है तुमने?
ओ चाँद!
तुम्हारी चांदनी के साये में
ओस की बूंदों जैसे
तुम्हारे आंसू
मेरे कन्धों पर गिर रहे हैं
मैं समझ रहा हूँ
फिर भी सुनना चाहता हूँ
तुम्हारी जुबां में
तुम्हारी कहानी को
बोलो न
आखिर कुछ तो कहो
ओ चाँद!
तुम खामोश क्यों हो?

©यशवन्त माथुर©

('परिकल्पना' पर पूर्व प्रकाशित यह पंक्तियाँ इस ब्लॉग के ड्राफ्ट में सहेजी हुई थीं। आज निगाह पड़ी तो अपने ब्लॉग पर भी प्रकाशित कर रहा हूँ। )

30 October 2012

सोच रहा हूँ,कुछ लिखूँ

शाम घनेरी हो चली है
सोच रहा हूँ,कुछ लिखूँ
राह अंधेरी हो चली है
सोच रहा हूँ,कुछ लिखूँ

चाँदनी बिखरने लगी है
टूट कर रात की बाहों में
शबनम अब गाने लगी है
सूनी सूनी फिज़ाओं में

मावस की आहट लगी है
सोच रहा हूँ,कुछ लिखूँ
झुरमुटों में सरसराहट मची है
सोच रहा हूँ,कुछ लिखूँ

कल्पना रूठ कर चली है
कलम में हलचल मची है
मन स्वयंभू कवि है
सोच रहा हूँ,कुछ लिखूँ ।

©यशवन्त माथुर©

27 October 2012

दर्द

(दर्द की वजह से सूजा हुआ गाल
जिसने यह पंक्तियाँ लिखने को प्रेरित किया)
 
बदलते मौसम का असर
लापरवाही में
दे देता है
नजला,जुकाम,बुखार
बदन दर्द
और इस बहाने
मिल जाते हैं 
दो पल
कुछ सोचने को  ।
दवा के असर के साथ
इन्टरनेट की अंधेरी
गुमनाम गलियों में
फेसबुक और ब्लॉग पर
रची तमाम पहेलियों में
कभी कभी नज़र आता है
बेहिसाब दर्द
जो कभी
खुद के ज़ख़्मों को
कुरेदने से उठता है
और कभी
जहर बुझे
शब्द तीरों की
तीखी चुभन से।
'लाइक' और 'कमेन्ट' की दवा 
'शेयर' का संक्रमण
और बढ़ाती ही है
पर दर्द
पूरी तरह जज़्ब नहीं होता
सिर्फ सोता है
कुछ पल की नींद में
अपना असर
फिर दिखाने के लिये। 
 

©यशवन्त माथुर©

24 October 2012

मुझे नहीं पता.....

सभी पाठकों को सपरिवार विजय दशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ--

हर रोज़
न जाने
कितने ही रावण
दिख जाते हैं
जीवन के इस प्रवाह में
कितने ही राम,ल्क्ष्मण
और सीता
कितने ही लव-कुश
और अनगिनत 
चरित्र
करीब आ कर
धीमे से
मन को छूते हैं
और चल देते हैं
अपनी राह ।
एहसास होने के
पहले ही
बन जाते हैं
कल्पना का अंश
छप जाते हैं
कविता,कहानी या उपन्यास
के किसी पृष्ठ पर
लेखकीय भूमिका
देश-काल और वातावरण को
पुनर्जीवित करते हुए
बहा ले चलते हैं
पाठक को
अपने साथ ;
किन्तु
हर रोज़
न जाने कितने ऐसे हैं ?
जो समझते हैं
रावण के ज्ञान का दंभ 
राम चरित का मर्म
लक्ष्मण और सीता का धर्म।
सिर्फ प्रवचन और
पंडाल की कथा
राम लीला का मंचन
पुतले का दहन
मनोरंजन के सिवा
क्या देता है
मुझे नहीं पता।


©यशवन्त माथुर©

20 October 2012

आँखों देखी......

कभी कभी राह चलते स्मृति पटल पर हमेशा के लिये अंकित हो जाने वाले दृश्य दिख जाते है। प्रस्तुत पंक्तियाँ 4-5 दिन पूर्व देखे ऐसे ही एक दृश्य को शब्द देने का प्रयास मात्र हैं---

(हनुमान सेतु )
गहराती उस
आधी रात को
हनुमान सेतु* के
सन्नाटे में
ऊंची जलती स्ट्रीट लाइट्स
और नीचे गोमती के शीशे में
खुद को ताकता
काला आसमान
शायद देख रहा होगा
मेरी तरह मौन साधे
रेलिंग के सहारे
दो कपड़ों में सिमटा
गहरी नींद में खोया
एक मानव शरीर
जिसके सिर के बालों को
संवार रहा था एक श्वान
अपनी जीभ से।

दिन भर की थकान के बाद
इस सुखद एहसास को
महसूस न कर पाने का मलाल
टूट कर गिरते
उस तारे को भी हुआ होगा
जिसे देखा मैंने
बेपरवाह दौड़ते टेम्पो की
गद्देदार सीट पर बैठ कर
तेज़ आवाज़ में गूँजता 
"जीना यहाँ मरना यहाँ "
सुनते हुए।

©यशवन्त माथुर©

*हनुमान सेतु लखनऊ का एक प्रसिद्ध पुल है  जिसे कभी मंकी ब्रिज भी कहा जाता था ।

16 October 2012

उसे महफूज रखना

सुबह से सुन रहा हूँ
फिल्मी पैरोडी पर
गूँजते भजनों का शोर
कभी तेज़
कभी धीमा संगीत
जिसके पार्श्व में
दबते से ,सिकुडते से बोल
न जाने कौन से
खोल में छुपे हुए हैं
हर ओर
बह रहा है 
सिर्फ संगीत ही संगीत
जिसके साथ
बहता जा रहा हूँ
मैं भी
गुनगुनाता जा रहा हूँ
फिल्मी गाना
अखबार मे छपी
मलाला की तस्वीर की
कल्पना करते हुए 
दुआ करते हुए
देवी माँ
उसे महफूज रखना
धरती की गोद में।

©यशवन्त माथुर©

10 October 2012

न जाने क्यों ?

आते जाते
राहों पर
तिराहों-चौराहों पर
मंदिर -मजारों पर
गिरिजा-गुरुद्वारों पर
मैं देखता हूँ
हाथ फैलाए खड़े 
लठिया टेक लोगों की
अनोखी दुनिया को

आसमान की
खुली छत के नीचे
बसने वाला आदिम युग
खत्म होती सब्सिडी से
बेखबर हो कर भी
बा खबर रहता है
अगले फुटपाथ पर
गूँजती नयी किलकारी से
ईद और दीवाली से

अब एक कमरे मे सिमटी
लाखों किलोमीटर की
गोल दुनिया
छोटी लगती है
लठिया टेक लोगों की
दो गज़ चादर से

न जाने क्यों ?

©यशवन्त माथुर©

05 October 2012

रोज़ सुबह-शाम ..........

रोज़ सुबह-शाम
हर गली -हर मोहल्ले में
मची होती है
एक तेज़ हलचल
नलों में पानी आने की
आहट के साथ  
मेरे और सब के घरों में
टुल्लू की चीत्कार
शुरू कर देती है
अपना समूह गान

किसी की
कारें धुलने लगती हैं
किसी के डॉगी नहाने लगते हैं
और कोई
बस यूंही
बहने देता है
छत की
भर चुकी टंकी को

और उधर
बगल की बस्ती में
जहां रहते हैं
'नीच' और
'फुटपाथिया' लोग
जिनके पास टुल्लू नहीं -

म्यूनिस्पैल्टी के
नल से बहती
बूंद बूंद अमृत की धार को
सहेजने की कोशिश में
झगड़े होते हैं

पास के गड्ढे में
एक डुबकी लगा कर
हो जाता है 
बच्चों का गंगा स्नान
धुल जाते हैं
कपड़े और बर्तन

रोज़ सुबह -शाम
मैं यही सोचता हूँ
काश 'इनकी' मोटर बंद हो
और रुक जाए
छत की टंकी से
पानी का बहना
और 'वो' कर सकें
अपने काम आसानी से

पर
संपन्नता का
क्षणिक गुरूर
शायद महसूस
नहीं कर सकता
विपन्नता के
स्थायी भाव को!


©यशवन्त माथुर©

02 October 2012

झूठ की मधुशाला में ......(गांधी जयंती विशेष)


















झूठ की मधुशाला में
जहां सच के जाम छलकते हैं
एक मेज पर प्रजा और राजा
वहाँ सबके सब बहकते हैं

सोच रहा हूँ मैं भी आज
एक बार वहाँ हो कर आऊँ 
झूठ कपट चढ़ा बांह पर
सच की छांह मे सो कर आऊँ

'बार' के सामने खड़ी कार में
बापू तुम्हारा चित्र देख कर
अरब-खरब सब खप जाते हैं
पेटी खोखा चोखा बन कर

सोच रहा हूँ वहाँ से लौट कर
उस फुटपाथ  पर टहल कर आऊँ -

जहां तुम्हारे 'वैष्णव जन'
अधनंगे हाथ फैलाते हैं
घिसट -घिसट रामधुन को गाते
दाना -पानी पाते हैं

झूठ की मधुशाला मे जो
सच के जाम टकराते हैं
आज देखना राजघाट पर
वे ही सर झुकाते हैं !


©यशवन्त माथुर©

27 September 2012

'एक'-'दूसरा'

एक के पास -

बड़ी चार पहिया गाड़ी है
ड्राइवर है
आलीशान मकान है
जिसके कोने कोने से
संपन्नता का देसी घी
सबको ललचाता सा गिरता है

महंगा मोबाइल है
लैपटॉप है
दस उँगलियों के इशारे पर
नाचती
ग्लोबल दुनिया है
जिसके चारों ओर
बदसूरत चाँद की तरह
वह  परिक्रमा  करता है

दूसरे के पास -

पैर में टूटी चप्पल है
सूत भर फुटपाथ है
जिसके कोने कोने में गूँजती
डरावनी पदचापों का एहसास
एक जनम मे ही
कई पुनर्जन्मों का होना है

चीख है -पुकार है
मुरझाता यौवन है
एक कपड़े मे सिमटा तन है
वेदना और सूखे आंसुओं की
अनोखी दुनिया में
उसका होना
एलियन का मिलना है

'दूसरे' का घर
'एक' के ठीक सामने है
एक समय पर
अक्सर
दोनों एक दूसरे के सामने होते हैं
'दूसरा' हाथ फैलाता है
और 
उसके ज़ख़्मों से
बेपरवाह 'एक'
काले शीशे वाली कार मे
निकल जाता है
समाजसेवा को।


©यशवन्त माथुर©

20 September 2012

घास

 













मैदानों में
ढलानों में
घर के लानों में
खेत-खलिहानों में
बागानों में
सड़कों के किनारों में
कवि के विचारों में
बारिश की रिमझिम फुहारों में
धरती का मखमली
गुदगुदा बिस्तर बनने का सुख
घास को हासिल है

घास
आस है
विश्वास है
दर्शन है
उपहास -परिहास है

घास
स्वाभिमान है -

तूफानों में
खुद को झुका लेती है
हो जाती है नत-मस्तक
छद्म -क्षणिक प्रभुत्व के आगे
और बाद की शांति में  
हो जाती है
पूर्व  की तरह अडिग
उठा लेती है खुद को

घास
निडरता का
प्रत्यक्ष प्रतीक
बन कर 
खोद कर
उखाड़ कर
फेंक दिये जाने पर भी
धरती के भीतर
छोड़ देती है
अपना अंश

हो उठती है
पुनः जीवंत
महलों के चमकते
फर्श के किनारों पर 
मौका पाते ही

घास
सिर्फ घास ही नहीं
गीता में लिखा 
जीवन का मर्म है
जिसका उद्देश्य
निरंतर कर्म है।

 ©यशवन्त माथुर©

16 September 2012

कौन जानता है ?

अर्थ के अर्थों में
डूबकी लगा कर
अनर्थ का व्यर्थ प्रपंच
किस अर्थ की
करेगा व्याख्या
कौन जानता है ?

परिदृश्य में वही है
जो सदृश्य है
श्वेत रंगीनी के पीछे
अदृश्य कालिमा की कथा
कब बांचेगा कोई
कौन जानता है ?

भद्रता की मिसरी बन कर
अभद्रता का अर्धसत्य
पूर्णविराम की प्रत्याशा में
कब तक सहेगा अल्प विराम
कौन जानता है ?

तर्क का कुतर्क रूप
अपने अस्थायित्व में
घिस घिस कर कलम की नोंक
कब तक करेगा छलनी
कागज के वक्ष को
कौन जानता है ?

अनर्थ का व्यर्थ प्रपंच
कब तक छुपा सकेगा
भीतर का रंज
अर्थ का सार्थक अर्थ
किस क्षण हो उठे प्रकट
कौन जानता है ?

©यशवन्त माथुर©

14 September 2012

लेटर टू अ बेस्ट फ्रेंड

माय डियर इंग्लिश ,

कोङ्ग्रेट्स फॉर योर ग्रेंड सक्सेस इन माय कंट्री। आई डोंट नो सो मच अबाउट यू एंड योर ग्रामर बट टुडे आय एम सेलिब्रेटिंग माय डे जस्ट लाइक अ बर्थ डे ईवन कोमन मैन ऑफ माय कंट्री लव्स मी सिंस द बिगनिंग ऑफ द भारतीय कल्चर। 

नाऊ डेज़ यू आर मोस्ट कॉमन इन इंडिया;नोट इन भारत । भारतीय पीपुल वांट्स टू स्पीक यू ,दे लाइक टू जॉइन स्पीकिंग क्लासेस एंड ऑल बट देयर रूट्स काँट चेंज देम । भारतीय पीपुल वांट्स  टू बी नॉन एज़ इंडियन एंड माय ईजिनेस इनसिस्ट देम टू स्टैंड एज़ अ भारतीय। 

आई नो यू वांट टू किक आऊट  मी फ़्रोम माय ऑन हाउस ;योर अटेंप्ट्स आर नोट फुल्ली सक्सीडेड येट एंड ट्रस्ट मी इट्स माय हाउस फोरेवर। 

एनी वे आय हेव नो प्रॉबलम लिविंग विद यू :) माय केक इज़ वेटिंग फॉर मी ऑन द टेबल फॉर फिफ़्टीन मोर डेज़ टिल देन यू ओलसो इनवाईटेड टू फिनिश इट। 

जॉइन मी एंड एंजॉय द नेशनल हिन्दी डे /वीक / फोर्टनाइट :)

ब बाय। 
हैव अ गुड टाइम।  


©यशवन्त माथुर©

11 September 2012

तब क्या होगा ?

घरों की खिड़कियों पर
चश्मों पर 
कारों पर
मॉल की दीवारों पर
और न जाने कहाँ कहाँ
काले शीशे
सीना तान कर
शान से जड़े हैं
अड़े हैं
सफेदपोशों से
भ्राता धर्म निभाने का
संकल्प लिये

कैसी है
इन काले शीशों के पीछे की
वास्तविक दुनिया
क्या काली है
या
कुछ उजलापन बाकी है ?

बड़ी उलझन मे हूँ
इन शीशों से
परावर्तित होता
अपना अक्स देख कर

दिन की तेज़ धूप
और रात में
इन शीशों पर
चौंधियाने वाली
कृत्रिम रोशनी देख कर
डर रहा हूँ
कहीं
मेरे चश्मे के सफ़ेद शीशे
इच्छा न कर बैठें 
काला होने की

और फिर
आईने में
खुद को देख कर
मैं ही न देख सकूँ
खुद के उस पार ....

तब क्या होगा ?

 
 ©यशवन्त माथुर©

06 September 2012

अंतर्जाल का मायाजाल (Blog post No-351)

बड़ा विचित्र
चित्र है
अंतर्जाल के
मायाजाल का

मैं
तुम
और सब
फंस चुके हैं
इस जंजाल में
उलझ चुके हैं इतना
कि सुलझने का वक़्त नहीं

कोई
सीना तान कर
कर रहा है
सच का सामना
कोई हार के वार को
जीत का उपहार समझ कर
जी रहा है भ्रम में

सबकी
अपनी दुनिया है
अपने समूह हैं
सबके
अपने अधिकार हैं
कर्तव्य हैं

आभासी दुनिया में
आने से पहले
शायद पूर्वाभास नहीं था
भेड़ चाल का
मतभेद का
ऊंच-नीच का
शोषण का

पर
सच तो यही है
यहाँ सच कहना मना है
क्योंकि
अंतर्जाल का मायाजाल
टिका है
झूठ और दिखावे की
अदृश्य -अनकही
नींव पर। 

©यशवन्त माथुर©

05 September 2012

शिक्षक दिवस की शुभकामनाएँ --अरे गुरु जी का वह डंडा !

 मेरे बाबा जी (Grand Father) स्वर्गीय ताज राज बली माथुर जी ने वर्ष 1955 -56 के लगभग सैन्य अभियंत्रण सेवाओं ( M E S) से नौकरी कीशुरुआत की थी। चूंकि सरकारी आदेशानुसार कार्य स्थल पर हिन्दी अनिवार्य कर दी गयी थी अतः ओफिशियल ट्रेनिंग के हिन्दी पाठ्यक्रम मे 'सरल हिन्दी पाठमाला' (1954 मे प्रकाशित) नाम की पुस्तक भी शामिल थी जिसकी मूल प्रति हमारे पास आज भी सुरक्षित है।

प्रस्तुत हास्य कविता इसी पुस्तक से स्कैन कर के यहाँ दे रहे हैं।यह कविता रूढ़ीवादी शिक्षा-प्रणाली पर तीखा व्यंग्य है ।

और स्पष्ट पढ़ने के लिए कृपया चित्र पर क्लिक करें  

03 September 2012

गुरु-शिष्य (शिक्षक दिवस विशेष)

पान की दुकान पर
अक्सर दिखते हैं
गुरु शिष्य साथ में
सिगरेट के कश लगाते हुए

और कभी कभी
दिख जाते हैं
शराब के उस ठेके पर
शाम के समय
गलबहियाँ किये हुए

एक को लालच है
अंक पत्र में
बढ़े हुए प्राप्तांकों का
एक को लालच है
मुफ्त की इच्छापूर्ति का 

दोनों
आधुनिक हैं -

द्रोणाचार्य
आज कल
अंगूठा नहीं
कैश इन हैंड
मांगते हैं।


©यशवन्त माथुर©

28 August 2012

खड़ा हूँ

पिछली कई सदियों से
खड़ा हूँ
इस चौराहे पर
चकाचौंध पर
सैकड़ों दिन
सैकड़ों रातें बीत चुकीं
मैं
बस यूं ही खड़ा हूँ

चेतना रहित तो नहीं हूँ
उस पार देख रहा हूँ
दाएँ कभी बाएँ देख रहा हूँ

इस चौराहे पर
कोई बाधा नहीं है
लोग आ रहे हैं
जा रहे हैं
अपनी राह
अराजकता है
फिर भी दुर्घटना नहीं

मेरे कदमों मे कंपन है
एक पल की सोच
बढ़ जाऊँ
एक पल की सोच
रुक जाऊँ
उलझन है
क्या करूँ ?

मैं यूं ही रहूँ
या चलने लगूँ
इस अर्ध जड़त्व का
कुछ तो असर होना ही है

पर क्या यह संभव है
गिरूँ तो मैं गिरूँ
पर
चोट धरती को न लगे

सोच रहा हूँ
बस इसीलिये खड़ा हूँ। 

©यशवन्त माथुर©

27 August 2012

अरे तुम तो इतने छोटे हो :)

तस्लीम-परिकल्पना सम्मान समारोह एवं अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगर सम्मेलन से लौट कर बस आया ही हूँ।

एक जगह इतने सब लोगों से मिलना वास्तव मे एक अलग ही एहसास रहा। यह भी महसूस हुआ कि लोग मुझे कम से कम मेरे नाम से जानते तो हैं :) यह बात और है कि काफी लोग शक्ल से मुझे पहचान नहीं सके। सबसे पहली मुलाक़ात संजय भास्कर जी से हुई,इनके बाद आदरणीय अमित श्रीवास्तव सर एवं निवेदिता आंटी से मिलना बेहद अच्छा लगा। चौकने वाली बात दो बार हुई जब पहली बार सुनीता शानू जी ने बोला "अरे तुम तो इतने छोटे हो"  और यही बात आदरणीया वंदना अवस्थी दुबे जी,इस्मत जैदी जी एवं शेफाली पांडे जी से मिलने पर भी हुई ;उनका भी यही कहना है कि अपनी फोटो मे मैं बहुत बड़ा दिखता हूँ लेकिन हूँ बहुत छोटा :) सही बात भी है आप सब से  छोटा तो हूँ ही :) और इसीलिए आप सभी के आशीर्वाद का आकांक्षी रहता हूँ। 

दिखता हूँ न छोटा :D:D:D:D (वंदना अवस्थी दुबे जी के साथ मैं और मेरे पिता जी )

विशेष रूप से आदरणीया शिखा वार्ष्णेय जी,राजेश कुमारी जी ,अर्चना चावजी जी ,वीणा श्रीवास्तव जी,निधि टंडन जी, रागिनी मिश्रा जी,गरिमा पांडे जी ,मुकेश कुमार सिन्हा जी ,रवि शंकर श्रीवास्तव जी,अविनाश वाचस्पति जी,संतोष त्रिवेदी जी,उदय वीर सिंह जी,धीरेन्द्र भदौरिया जी,आशीष जी,अरुण निगम जी,रविकर जी,रूप चंद शास्त्री जी,बी एस पाबला जी ,शिवम मिश्रा जी एवं नीरज जाट जी से भी प्रत्यक्ष  मिल कर बेहद अच्छा लगा।

अरुण निगम जी और उदयवीर सिंह जी के साथ

आदरणीय गिरीश पंकज जी इतने बड़े साहित्यकार होने के बाद भी जिस स्नेह  से मिले और उन से बात हुई मेरे लिये उन से कुछ पल मिलना मात्र भी आशीर्वाद से कम नहीं है।

संजय भास्कर जी,धीरेन्द्र भदौरिया जी और उदयवीर सिंह जी के साथ

मेरी नज़र मे यह कार्यक्रम एक बेहद सफल आयोजन रहा जिसके लिये आदरणीय रवीन्द्र प्रभात जी,ज़ाकिर अली जी एवं रणधीर सिंह सुमन जी को विशेष धन्यवाद।

चित्रों के लिये आदरणीया वंदना अवस्थी जी एवं धीरेन्द्र जी का विशेष आभार एवं धन्यवाद !
(post re updated on 31/08/2012)


यशवन्त माथुर


22 August 2012

कुछ

अभी तक
कुछ नहीं है मन में 
फिर भी
मन हो रहा है
कुछ करने का
कुछ कहने का
यह आदत है
मजबूरी है
या नौकरी
नहीं पता
बस
बाहर होती
रिमझिम को देख कर
नहा धो कर
ताजगी से 
खिलखिलाती घास-
फूल-पत्तियों को देख कर
सोच रहा हूँ
लौट जाऊं
फिर से बचपन की ओर
और कौतूहल से
निहारता रहूँ
आते -जाते,
बिखरते-सिमटते
काले बादलों को
उन कुछ पलों तक
जब तक
मन न भरे।  


©यशवन्त माथुर©

19 August 2012

उजला-काला

वर्तमान के उजले
मुखौटे के भीतर
भविष्य का काला सच दबाए
कुछ लोग चलते जाते हैं
अपनी राह
पूरे होशो हवास मे
आत्मविश्वास मे

वो जानते हैं
भेड़चाल का परिणाम
झूठ का सच मे बदलना  है

समय के साथ
धुलना तो है ही
इस सफेदी को
पर तय है
कालिख का
प्रसाद चख कर
अंध भक्तों को 
बिना संभले गिरना है

क्योंकि मुखौटे की
अस्थायी ,स्थायी पहचान
देखने नहीं देती
खरोच पर उभरी
काली लकीर को। 


©यशवन्त माथुर©

15 August 2012

यही एक दिन है

सभी पाठकों को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
     =======================================

एक साल में
एक दिन यही है
जब भूल जाता हूँ
देखना
फुटपाथ के किनारे
भूख से बिलखते
मासूमों को
मटमैले बदन पर
एक धोती में सिमटी
उस मज़दूरनी को
और उसे घूरती
लालची नज़रों को

यही एक दिन है
जब भूल जाता हूँ
देखना
नींव का पत्थर रखते हाथों को
अट्टालिकाओं की ऊंची दीवारों को रंगते
ज़िंदा इंसानी पुतलों को

यही एक दिन है
जब भूल कर
अपनी कंगाली
मैं दौड़ पड़ता हूँ
प्रभातफेरी के साथ 
हाथ मे लेकर तिरंगा
और शान से कहता हूँ
मेरा भारत महान !

©यशवन्त माथुर©
यह पोस्ट http://jmkyashwant.wordpress.com पर भी उपलब्ध है।

11 August 2012

त्रस्त है.....अभ्यस्त है

इन्हें शब्दों के बिखरे टुकड़े कहना सही रहेगा । अलग अलग समय पर अलग अलग मूड मे लिखे कुछ शब्दों को एक करने की कोशिश कर के यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ--

जनता त्रस्त है,पार्षद मस्त है
मेयर व्यस्त है,विधायक भ्रष्ट है
सांसद को कष्ट है ,मौसम भी पस्त है

कहीं गरज है, छींटे हैं ,बौछारें हैं
कहीं सूखा है,बाढ़ है ,कातिल फुहारें हैं

दरवाजों के बाहर , कहीं जूठन फिक रही है
कहीं कुलबुलाती आँतें,और आँखें सिसक रही हैं

कहीं सड़ता गेहूं -चावल, बह कर के बारिश में
फिर भी 'वो' समझते हैं,फैले हाथ मोबाइल की फरमाइश मे

अब क्या कहें कि गहराते अँधेरों में
सच का उजाला तो गहरी नींद में हसीन सपना है
सोच रहा हूँ परायों की रंगीन बस्ती में
किस मुखौटे के पीछे कौन सा चेहरा अपना है 

है यही सच कि कोई माने या न माने -
पस्त है कष्ट, और भ्रष्ट व्यस्त है
मस्त है खुद में 'आम',त्रस्त है ,अभ्यस्त है

©यशवन्त माथुर©

06 August 2012

भूल गया क्यों तुम को?

लगभग साल भर से यह पंक्तियाँ ड्राफ्ट में सुरक्षित थीं। पूर्व में अन्यत्र प्रकाशित अपनी इन पंक्तियों को अपने ब्लॉग पर आज प्रकाशित कर रहा हूँ-


उस क्षण !
मैंने तुमको
किया था
याद बहुत
जब
गहरे अंधेरों में
खुद को
डूबता पाया था
उस क्षण !
जब मैं गिन रहा था
साँसे
गुमनामी की
रोग शैय्या पर
लेटे हुए
मैं याद करता था
तुम को

उस क्षण !
जब मेरे अपने
होते जा रहे थे दूर
नाज़ुक से
मुलायम हाथों को
छिटक कर
मैं
हाथ जोड़े खड़ा था
तुम्हारे सामने

समय का
तेज चलता पहिया
न जाने
कब वो दिन बीत गए
पूरे होते सपनों की उड़ान में
अनोखी आशाओं के
मखमली बिस्तर पर
मैं भूल गया था
तुमको

और अब
फिर झेल रहा हूँ
झंझावातों को
खड़ा हूँ
हाथ जोड़े
तुम्हारे सामने
झुकी नजरों से
मांग रहा हूँ
आसरा
तुम्हारे आँचल में

मैं शरमा रहा हूँ
कुछ भी कहने में
तुम्हारी मूरत से
नज़र मिलाने का साहस
अब नहीं रहा

काश !
उसी तरह तुमको
रखता साथ
मन के भीतर
किसी कोने में
तो शायद
मेरा आज
आज न होता
जी रहा होता
मैं
सुनहरे बीते कल को
आज बना कर

कर रहा हूँ
खुद से एक प्रश्न
भूल गया क्यों तुम को ?
उन पलों में .

©यशवन्त माथुर©

04 August 2012

भ्रम

एक सच है
एक झूठ है
एक मुखौटा है
एक असली चेहरा है
एक शतरंज है
एक मोहरा है
एक साँप है
एक सपेरा है
एक अंधेरा है
एक सवेरा है
एक प्रश्न बहुत टेढ़ा है
किसका साथ दूँ ?
जब सब कुछ साफ है
है पट्टी बंधी आँखों पे
पर क्या इंसाफ है ?
मति भ्रम कहो या
या पैदाइशी दृष्टि भ्रम
मैंने सोचा है
सच की आग में
झुलसुंगा।


©यशवन्त माथुर©

01 August 2012

'दो'

आदत है अँधेरों में जीने की 
तो क्या चीज़ उजाला है 
एक तरफ है झक सफ़ेद 
एक तरफ काला है  

कहीं इस समय दिन है 
कहीं पे रात है 
कहीं भरी दुपहर है 
कहीं शाम की बात है 

मावस की लकीरों में 
कहीं उदास है जिंदगी 
पूनम की महफिलों में 
कहीं खास है जिंदगी 
 
दो रूप हैं ,दो रंग हैं 
एक लुभाता ,एक अखरता है 
जो पूरा है,अधूरा भी है 
दो नज़रों से एक दिखता है

आदत है दो में जीने की 
क्या कर सकता एक अकेला है 
काला सफ़ेद तो निश्चित होगा 
जिंदगी का यही झमेला है


(दो दिन बिजली ग्रिड की गड़बड़ी से प्रेरित )


 ©यशवन्त माथुर©

28 July 2012

सोच रहा हूँ

अभी अभी फेसबुक पर यह चित्र देखा ;इसे देख कर जो मेरे मन ने कहा ,वह प्रस्तुत है- 

साभार : फेसबुक 

















मन की कलम में
बादलों की स्याही भर कर
सोच रहा हूँ
कुछ लिख दूँ
आसमां के पन्ने पर 

कुछ ऐसा
जो उड़ कर मिट न पाए
कुछ ऐसा जो
हर पल नज़र आए
कुछ ऐसा कि
जिसे पढ़ कर
कोई हँसे तो
कोई रोए
जी भर कर

सोच रहा हूँ
कुछ लिख दूँ
आसमां के पन्ने पर 

©यशवन्त माथुर©

25 July 2012

खुली किताब

समझता हूँ खुद को
एक खुली किताब
जिसका हर पन्ना
रंगा है
आड़ी तिरछी 
स्याह सफ़ेद
लकीरों से
और
बीच बीच में उभरते 
अनाम सा चेहरा बनाते
कुछ छींटे
कुछ धब्बे
खट्टी मीठी
यादों को साथ लिये
घूर रहे हैं
अगले
खाली पन्नों को।


©यशवन्त माथुर©

23 July 2012

वादी हूँ

आज कल वाद और वादी होने  का बड़ा चलन है ,लोग सच को स्वीकार करना नहीं चाहते,ज़मीन से जुड़ी बातों को समझना नहीं चाहते। प्रस्तुत पंक्तियाँ एक प्रवासी फेसबुकिया मार्क्सवादी की सोच  से प्रेरित हैं और इन शब्दों मे उन्हीं की सोच को दर्शाने का प्रयास किया है; फिर भी पाठकों से अनुरोध है कि इसे सिर्फ एक रचना की तरह से पढ़ें और इसके अर्थों में न जाएँ। 


है सोच संकुचित पर निस्संकोच प्रगतिवादी हूँ
शोषकों का हितैषी ,सदोष जनवादी हूँ 
वादी हूँ, फरियादी हूँ, लेनिन-मार्क्सवादी हूँ
हूँ एक लकीर का फकीर ,उन्मादी- रूढ़ीवादी हूँ
चाट हूँ कट्टरता की,घनघोर जातिवादी हूँ
जेपी नहीं एपी हूँ ,असली विघटनवादी हूँ
राम राज को गाली देता,फर्जी गांधीवादी हूँ
दूर देश से देता लेक्चर,सच्चा बकवादी हूँ
मानो या न मानो मुझ को,कागजी राष्ट्रवादी हूँ
सिद्धांतों की ऐसी तैसी ,लेकिन मार्क्सवादी हूँ

©यशवन्त माथुर©

19 July 2012

क्षणिका ,,

बादलों के पर्दे में
लुक छिप कर
डूबता सूरज
लग रहा है
जैसे कह रहा हो
अपने मन की बात
कि अंत
सिर्फ यही नहीं है।


©यशवन्त माथुर©

15 July 2012

जिंदगी ये भी है


जिंदगी ये भी है कि, सीख कर ककहरा
लिख दूँ इबारत, एक मुकम्मल तस्वीर की

जिंदगी ये भी है कि, खाक छान कर गलियों की
जला कर शाम को चूल्हा, तस्वीर देखूँ तकदीर की

हूँ उलझन में बहुत ,जलते चराग देख कर
रोशन हैं अरमां कहीं ;कहीं सिसकते राख़ बन कर 

जिंदगी ये भी है कि ,महलों की बदज़ुबानी के साये तले
बगल की बस्ती में, बाअदब गुलाब महकते हैं। 


©यशवन्त माथुर©

12 July 2012

मंज़िल के पार

चित्र साभार :http://latimesblogs.latimes.com
















चाहे -अनचाहे
इस दुनिया मे आने के बाद
अब 
धधक रहा है ज्वालामुखी 
'उनकी' अपेक्षाओं का
अरमानों का
और मेरे
अनगिने सपनों का

वक़्त की बुलेट ट्रेन पर
शुरू हो चुकी है
मेरी प्रगति यात्रा

अब बस इंतज़ार है
अपेक्षाओं और सपनों के
ज्वालामुखी के फटने का
जिससे निकलने वाला
फूलों का लावा
अपनी खुशबू की
चपेट मे लेगा  
सारी दुनिया को

महकी हुई हवा
बहक कर छूएगी मुझे 
और मेरा नाम लेकर
कहेगी
आ ले चलूँ तुझे
तेरी मंज़िल के पार!
 

[उनकी=माता-पिता की 
मैं या मेरी =एक छोटी लड़की जो यहाँ अपनी बात कह रही है ]
 
©यशवन्त माथुर©

11 July 2012

दोनों वक़्त का चाँद

[Mobile Photo:10/07/2012]



  











ये चाँद भी
बदसूरत है
बेहयाई से दिखता है
दोनों पक्षों में
रात में
और दिन में भी

बिना सोचे
बिना समझे
'फिकरों'* की फिकर
किये बगैर
ये चाँद
करता है परिक्रमा
मेरे साथ
मेरी सोच की

दुनिया की।

*फिकरा =ताना(व्यंग्य)


©यशवन्त माथुर©

09 July 2012

शब्दों की मेड़

यहीं कहीं तो थी
शब्दों की वह मेड़
जिससे घेरा था
तरल मन को
बह जाने से रोकने को

वह मेड़ मजबूत थी
ठोस और अटल थी
विश्वास ,उत्साह  और
स्वाभिमान से लिपी पुती थी

शायद आत्ममुग्ध भी थी

तरल मन के भीतर की
अस्थिर लहरों की
धीमी धीमी चोटों से
आहत
शब्दों की 
वह मेड़
बिखर कर,टूट कर 
अब खो चुकी है कहीं
हमेशा के लिये

और मैं जुटा हूँ
पहले से मजबूत
एक और
नयी मेड़ बनाने में । 

©यशवन्त माथुर©

05 July 2012

बारिश के पहले,बारिश के बाद

बारिश के पहले 

बारिश होने से पहले
सूखे की संभावना के साथ
दोनों हाथ ऊपर फैलाए
अन्नदाता मांग रहा था भीख 
झुलसती क्यारियों में
नये जीवन की।

बारिश होने से पहले
हरियाली हीन
सड़कों पर
चलते हुए
मेरे चटकते तलवे
चाह में थे
ठंडक की।

बारिश  के बाद  

बारिश होने के बाद
अन्नदाता खुश है
तृप्त क्यारियों की
अनकही चमक देख कर
झरते मोतियों की
बिखरती माला देख कर
मानो मन के मनके
खुश हों
नये जीवन में
बेसुध हो कर।

बारिश होने के बाद
अब मैं फिर से चाहता हूँ
पहले जैसा सब कुछ
तलवों पर लगी
काई और कीचड़ देख कर
उतरे चेहरे के साथ
सोच रहा हूँ
ये क्या हो गया ?


अन्नदाता =किसान 
मेरा /मैं  =आम शहरी नागरिक 

©यशवन्त माथुर©

02 July 2012

जुलाई का महीना

जुलाई का महीना
बस्ते के बोझ का महीना
फीस और किताबों की
कीमत से पस्त
मगर भविष्य को देख कर
खुशी से मुसकुराती
जेब का महीना
आशा का महीना
अभिलाषा का महीना 
ऊंची महत्वाकांक्षा का महीना

(धरती की झुर्रियां)हिंदुस्तान-लखनऊ-02/जुलाई/2012
मगर इस महीने में
जब धरती बहाती है
खुशी और गम के आँसू
कंक्रीट ,पत्थर और
शीशे के महलों  के भीतर
बसने वाले
कृत्रिम वायु मण्डल ने
कर दिया है चेतना हीन

जुलाई का महीना
यौवन पर इठलाने वाली
धरती की
झुर्रियां देख कर
रो रहा है
मन ही मन।

©यशवन्त माथुर©

27 June 2012

मेरी भी सुन लो -

यह पंक्तियाँ एक प्रयास है गर्भ में पल रहे स्त्री भ्रूण के मन की बात को कहने का -

बहुत अनिश्चित मेरा भाग
दुर्भाग से गहरा नाता है
यूं तो दुनिया मुझ से चलती
मुझ पर ही खंजर चल जाता है

माँ बचा ले मुझको तेरी
गोद में पलना भाता है 
आँचल की छांव मुझे भी दे दे
क्यों तुझे समझ न आता है ?

बड़ी बड़ी बातों मे सबकी
देवी, लक्ष्मी, सरस्वती हूँ
हूँ पूजनीया नौ दुर्गों में
मैं फिर भी त्यागी जाती हूँ

है बहुत अनिश्चित मेरा भाग
दुर्भाग मानव जात तुम सुन लो
खंजर है अधिकार तुम्हारा
बस भविष्य के अंत को चुन लो। 

 ©यशवन्त माथुर©

24 June 2012

बातों की नियति

कविताओं में
लेखों में
बैनरों मे लिखे नारों मे
जुलूसों में
सेमिनारों में
होती हैं
बड़ी बड़ी बातें
एक पल को
जो मन को भाती  हैं
तर्क की कसौटी पर
सधी हुई बातें
जो
कुतर्कों से
कट नहीं पाती हैं
अच्छी लगती हैं
मंच के सामने बैठ कर
सुनने में
और कुर्सी से उठने के बाद
मंच से बोलने के बाद
ये अनमोल बातें
खो देती हैं मोल
हार जाती हैं
धूल की तरह जमी हुई
बरसों पुरानी सोच से
तर्क के भीतर छुपे
कुतर्क से

शायद बातों की
यही नियति है । 


©यशवन्त माथुर©

22 June 2012

'मुझे तो ढहना ही है'

शब्दों की उलझी हुई सी
बेतरतीब सी
इमारत -
भावनाओं की उथली
दलदली नींव पर
कब तक टिकेगी
पता नहीं 
पर जब तक
अस्तित्व में है
बेढब कलाकारी की
झूठी तारीफ़ों
सच्ची आलोचनाओं
तटस्थ दर्शकों की
चौंधियाती आँखों में
झांक कर
रोज़ 
कहती है
एक मौन सच-
'मुझे तो ढहना ही है'

 ©यशवन्त माथुर©

18 June 2012

ओ बादलों !

ओ बादलों !
यहाँ की हरियाली को
उजाड़ कर
कंक्रीट की बस्ती में
अब मुझे इंतज़ार है
तुम्हारे बरसने का

हाँ
मैंने छीना है
तुम्हारा आकर्षण
और 
जो है भी
वो इतनी ऊंचाई पर
तुम देख नहीं सकते

क्योंकि
गमलों मे लगे बोन्साई
तुम से
कुछ कह नहीं सकते

ओ बादलों !
चोरी और सीना जोरी
मेरी स्वाभाविक फितरत है
यह तुम भी समझते हो
फिर भी
क्यों नहीं बरसते हो

चलो
अब ज़्यादा
नखरे मत दिखाओ
जल्दी से आओ
बरस भी जाओ

शायद
तुम्हारे बरसने से
झुलसती धरती के
ज़ख़्मों को
कुछ राहत मिले
और नयी कोंपल देख कर
मैं लूँ सबक
उसे सहेजने का।


©यशवन्त माथुर©

'मैं' और 'मेरी' शब्द -मानव जाति के लिये प्रयोग किए हैं

17 June 2012

ज़रूरी है ....

चुपके से खींचा गया फोटो-09/06/2012 
सिर पर
एक हाथ ज़रूरी है
हर पल का साथ
ज़रूरी है
आते जाते कदमों पर
एक एहसास ज़रूरी है

ज़रूरी हैं
कल की यादें
आज और
कल की बातें

ज़रूरी है
वही प्रेरणा
वही विश्वास
जो कल था
और
आज भी है
मेरे लिये
मेरे साथ
हमेशा की तरह!

©यशवन्त माथुर©

16 June 2012

टूटना

टूटना
एक शीशे का हो
सपने का हो
या रिश्ते का हो

टूटना
दिल का हो
बात का हो
या वादे का हो

टूटना
कसमों का हो
रस्मों का हो
या तिलिस्मों का हो

अच्छा होता है
कुछ चीजों का टूटना
और टूट कर बिखरना
उस एहसास के लिये
कि जुड़ना
आसान नहीं होता।


©यशवन्त माथुर©

15 June 2012

क्षणिका

कहीं ये न हो 'निराश' कि
लौ के बुझ जाने पर
जश्न मनाने लगें
पर्दानशीं चिराग।

©यशवन्त माथुर©

FB Status-14/06/2012

'निराश'=मेरा उपनाम जिसे बहुत कम प्रयोग करता हूँ। 

14 June 2012

अनकही बातें

कहीं रत जगे हैं 
कहीं अधूरी मुलाकातें हैं  
हवाओं की खामोशी में 
आती जाती सांसें हैं । 

डरता है कुछ कहने से 
मन की अजीब चाहतें हैं 
किसी कोने मे दबी हुई 
अब भी अनकही बातें हैं।

©यशवन्त माथुर©

12 June 2012

क्षणिका

ए वक़्त !
बस इतना सा एहसान कर दे
धूल के गुबार की तरह
मेरा ज़र्रा ज़र्रा उड़ता जाए
और कहीं खो जाए
ज़मीं पर गिरने से पहले।

©यशवन्त माथुर©

11 June 2012

कुछ अविश्वसनीय चित्र

 रोज़ तो आप मेरी रचनाएँ पढ़ते ही हैं लेकिन आज आप सभी के साथ कुछ अविश्वसनीय चित्र साझा कर रहा हूँ जो मुझे यशोदा दीदी ने मेल पर भेजे हैं । यह चित्र देखने मे किसी कैमरे से खींचे गये लगते हैं जबकि वास्तव मे इन्हें पेंसिल से बनाया गया है।  

चित्रकार हैं -श्री पॉल कैडन ।  



"Artist's drawings take between three and six weeks to create and sell for up to £5,000 each. These might look like photographs, but it's not all black and white when it comes to the work of this artist.

Despite looking like they have been captured on a camera, these are actually hand-drawn images created by hyper realist artist Paul Cadden. The 47-year-old, from Scotland , is able to recreate photos in amazing detail, often just using only a pencil.


From the wrinkles on a woman's face, a puff of smoke from a cigarette or dripping water - Cadden's drawings look unbelievably realistic."

















 

साभार-http://mails.forwards4all.com

09 June 2012

'मैं' और 'वो'

मुझे फिकर है
बिजली जाने की
इन्टरनेट से
दूर हो जाने की
मुझे फिकर है
खुद की
खुद के घर की
मुझे फिकर है
औरों के सुख की
खुद के दुख की
मुझे फिकर है
सिर्फ उनकी
जिन्हें मैं जानता हूँ
पहचानता हूँ
क्योंकि
इस आवरण से
नहीं निकल सकता
बाहर
चाह कर भी

एक ये 'मैं' हूँ
घोर स्वार्थी
जो खुद के लिये
सिर्फ खुद का है 

और एक 'वो' है
जो सबके लिये
और सबका है
'वो'
जो खुद के घर से
मीलों दूर
रेगिस्तान की
तपती रेत में भी
तरोताजा है
'वो' जो
भयंकर शीत मे भी
जुझारू है
कभी बंकर के भीतर
कभी बाहर 
जिसके जज़्बात
दबे हुए हैं भीतर कहीं
जो एक पल को
शायद कभी
कुलबुलाता है
जब कोई उसकी
राह देखता
बुलाता है 

'वो'
जो सैनिक है
मुझ से
बहुत अच्छा है
'मैं' कागजी शेर हूँ
और 'वो'
सच में दहाड़ता है।

  
©यशवन्त माथुर©

08 June 2012

नेता जी गुस्से मे हैं

पड़ोस मे रहने वाले
नेता जी
आज बहुत गुस्से मे हैं 
लड़ रहे हैं
सभासद का चुनाव
अक्सर देते हैं
सफाचट मूछों पर ताव  
आज अचानक वो बोले
आओ बिजली घर पर
हल्ला बोलें
जब तब चली जाती है
देर तक नहीं आती है
ट्रेलर बहुत दिखाती है
हमरा वोट कटवाती है

निकला जब जुलूस
हुई किरपा जे ई जी की
लौट  के जब सब घर को आए
कटिया कटी
नेता जी की

अब सर झुकाए
भन्नाए ,बड़े अनमने  हैं
नेता जी गुस्से मे हैं। 


[सच से कहीं दूर ये पंक्तियाँ पूरी तह काल्पनिक हैं;सच सिर्फ इतना है कि यहाँ लाइट बहुत आ जा रही है ]

©यशवन्त माथुर©

06 June 2012

आम आदमी हूँ मैं

अभी 2 दिन पहले यशोदा दीदी ने फेसबुक पर एक स्टेटस दिया था। उसी स्टेटस से प्रेरित कुछ पंक्तियाँ-


न महलों मे रहता
न कारों मे चलता
न जहाजों मे उड़ कर
कहीं जाता हूँ मैं

न नेता न अभिनेता
न वादों से मुकरता
जो कहता
वो रोज़ निभाता हूँ मैं

अखबार मे रोज़ छपता
टूट टूट कर बिखरता
मुसीबतों मे जीने की
अजब कहानी हूँ मैं 

जो गर्मी मे झुलसता
शीत मे ठिठुरता
रोज़ भूख से बिलखता
आम आदमी हूँ मैं

©यशवन्त माथुर©

03 June 2012

गोरख धंधा

सोच रहा हूँ शुरू करूँ
आज से मैं भी गोरख धंधा
चार आँखें हों चढ़ी नाक पे
बोलूँ फिर भी खुद को अंधा

कैसा होगा ऐसा धंधा
जिसमें पैसा -रुपया होगा
अकल घुलेगी घुटी भांग संग
बाप बड़ा न भैया होगा

ऐसा धंधा चोखा होगा
जिसमे केवल धोखा होगा
एक भरेगा अपना झोला
लुट पिट रोना दूजा होगा

चार अक्षर चालीस छपेंगे
घट बढ़ गड़बड़ मोल भरेंगे
इस धंधे की माया ऐसी
मोल तोल मे झोल करेंगे

माफ करो मुझ से नहीं होगा
कैसे मन ने सोचा ऐसा
रूख सूख का गरूर है खुद को 
नहीं चाहिये खोटा पैसा

गोरख धंधा,गोरख धंधा
अरबों का है मूरख धंधा
आज ऊंच कल नीच पड़ेगा
मंदा होगा जब ये धंधा 

तब मत कहना मुझ को अंधा।

©यशवन्त माथुर©

02 June 2012

आपका साथ और ये 2 वर्ष ..........

जून का दूसरा दिन और दो साल पूरे करने के बाद यह ब्लॉग अब अपने 3 रे वर्ष मे प्रवेश कर रहा है। 2010-11 की तुलना मे 2011-12 काफी कुछ सिखाने और दिखाने वाला रहा। ब्लॉग के बारे मे तकनीकी जानकारी मे वृद्धि हुई;और सब से बड़ी बात यह कि बहुत से अच्छे दोस्त मिले ,कुछ लोगों से मिलने का मौका भी मिला और कुछ लोगों से फोन पर भी संपर्क हुआ जो अब तक कायम है। हाँ इस दौर मे कुछ दोस्तों से दोस्ती टूटी भी ,जो भ्रम थे उन पर से पर्दा भी हटा और ब्लोगिंग के साथ चल रहे कुछ लोगों के गोरख धंधों का भी पता चला।

फिलहाल मेरे पास ज़्यादा कुछ कहने को नहीं सिवाय इसके कि आप सभी पाठकों के असीम स्नेह के लिए तहे दिल से आभारी हूँ और आशा करता हूँ कि आगे भी आपका स्नेह इसी प्रकार बना रहेगा।

प्रस्तुत है मेरी एक पुरानी कविता जो पहले भी इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुकी है--


नए दौर की ओर


शुरू हो गया
फिर एक नया दौर
कुछ आशाओं का
महत्वाकांक्षाओं का
कुछ पाने का
कुछ खोने का
नीचे गिरने का
उठ कर संभलने  का
उसी राह पर
एक नयी चाल चलने का

ये नया दौर
क्या गुल खिलायेगा
कितने सपने
सच कर दिखाएगा
दिल के बुझे चरागों को
क्या नयी रोशनी दिखाएगा

नहीं पता.

नहीं पता -
क्या होगा
क्या नहीं
वक़्त की कठपुतली बना
मैं चला जा रहा हूँ
एक नए दौर की ओर

नए दौर की ओर
जहाँ
पिछले दौर की तरह
चलता रह कर
फिर से इंतज़ार करूँगा
एक और
नए दौर का.

<<<यशवन्त माथुर>>>

26 May 2012

मेरे सपनों की दुनिया

कभी कभी
रातों को आते हैं
बड़े ही अजीब से ख्वाब
मैं चला जाता हूँ
अनोखी दुनिया में
एक ऐसी दुनिया
जो घिरी है
ढेर सारे
रंगबिरंगे फूलों से
फूल -
जो कभी मुरझाते नहीं
खिले रहते हैं
महकते रहते हैं  
उस दुनिया मे
हर कोई खुश है
क्योंकि सब अमर हैं
उस दुनिया मे
रोजगार हैं;
सब
अपने ही मालिक हैं 
और नौकर
कोई नहीं
उस दुनिया मे
सब पैदल चलते हैं
पेट्रोल की महंगाई से
बे फिकर हो कर 
क्योंकि
कोई दूर नहीं
सब नजदीक हैं
तन और मन से
मैं रहना चाहता हूँ
उस दुनिया में
बसना चाहता हूँ
हमेशा के लिये
अमर हो कर
खुश रहना चाहता हूँ
पर अफसोस!
सपनों की उस दुनिया मे
मेरे लिये जगह नहीं
क्योंकि
वहाँ पीढ़ियाँ जन्म लेती हैं
अमरत्व का वरदान ले कर
और उस दुनिया के लोग
आना चाहते हैं
सपनों से बाहर की
इस दुनिया में
ताकि कर सकें
वो भी
एक जीवन से
दूसरे जीवन का सफर।

<<<<यशवन्त माथुर>>>>

24 May 2012

बात बन गयी

सोचना है कुछ
कुछ लिखना है
करनी है ईमेल
और जल्दी से भेजना है
संपादक को छापने की जल्दी है
और मुझे छपने की
अपना नाम देखने की
जल्दी है ,बहुत जल्दी है
सच मे क्या करूँ
लाइनें लिखता हूँ
मिटाता हूँ
बार बार दोहराता हूँ
और डालता  हूँ
आस पास एक नज़र
कोई विषय मिल जाए
तो बात बन जाए
दोनों की 
छपने वाले की भी
छापने वाले की भी
और बनती जा रही हैं
यह पंक्तियाँ
जो आप पढ़ रहे हैं
अपना सिर पकड़ के

भौहों को तान के
झेल रहे हैं
यह हल्की फुलकी नज़्म (?)
कविता (?)
या कुछ और
जो भी हो
मेरी तो बात बन गयी
पर  आपकी ?  :)
www.nazariya.in पर पूर्व प्रकाशित

<<<<यशवन्त माथुर>>>>

23 May 2012

धन्यवाद जयेश जी ....

जैसा कि आप सभी जानते हैं कि इस ब्लॉग की पृष्ठभूमि मे मेरी आवाज़ मे स्वागत संदेश लगा हुआ है। मेरी खुशकिस्मती है कि जयेश कोठारी जी ने मेरी आवाज़ को पसंद किया और अपने मित्रों को समर्पित एक कविता को आवाज़ देने के लिए मुझ से संपर्क किया। उनकी यह कविता आप उनके ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं और मेरी आवाज़ मे सुन सकते हैं। लिंक है--

http://meandwords.blogspot.in/2012/05/same-day-year-ago-i-completed-four.html

मेरी शुभकामना है कि जयेश जी अपने जीवन मे अनेकों सफलताएँ प्राप्त करें।

 

22 May 2012

तस्वीर की तलाश ......

तलाश में हूँ
एक तस्वीर की
जिसे देख कर
बिना रुके
लिखता चलूँ
और कहता चलूँ
उस तस्वीर के
मन की बात
कहता चलूँ
उसके चेहरे से
झलकता
कभी दर्द
और कभी खुशी का
संगम ! 

लेकिन वो चित्रकार कहाँ
जिसने रची होगी
वो तस्वीर
और कहाँ वो तस्वीर 
जिसे पाने के
कर लिये अनेकों जतन

वो साधारण सी
असाधारण तस्वीर
और उसके जैसे
सैकड़ों चेहरे
हर रोज़ देखता हूँ
अपने आस पास

मगर फिर भी
तलाश जारी है
"कुछ हटके" की
जिस पर लिख सकूँ
"कुछ हट कर"
बिना पेन और कागज के
बिना की बोर्ड और स्क्रीन के
गढ़ दूँ कुछ ऐसे अक्षर
जो कभी चोट लगें
और कभी मलहम
उस तस्वीर के
खुशी और गम की तरह।

<<<<यशवन्त माथुर >>>> 

इस ब्लॉग का एक लिंक अब यह भी--http://jmkyashwant.wordpress.com/

20 May 2012

पत्थर का साथ

चित्र साभार- http://hardinutsav.blogspot.in
इंसान की फितरत से
पत्थर का साथ अच्छा है .....
सिर्फ देखता है एक टक ,
सुनता है -समझता है....
न छल है उसमे कोई
न कोई तमन्ना है ...
लहरों से टकराना है..
टूटना है बिखरना है ....
फिर अंजाम की क्या फिकर...
कि इंसान भी टूटकर
बिखरता है एक दिन .....
एक जज़्बात से टूटता है
दूसरा लहरों मे बिखरता है ।

[ मेरी आदत है कुछ लिंक्स को फेसबुक पर शेयर करने की। स्वप्नगंधा जी की शायरी वाले एक लिंक पर स्वाति वल्लभा जी की एक टिप्पणी के उत्तर मे मैंने (17 मई को) उपरोक्त पंक्तियों को लिखा था।  ]

<<<<<यशवन्त माथुर >>>>

17 May 2012

अक्षरों का जीवन .....

चित्र साभार:- http://www.facenfacts.com/
कभी मैं सोचा करता था
लिखे हुए अक्षर
कभी नहीं मिटते
पर आज
जब देखा
गले हुए पन्नों वाली
एक पुरानी किताब को
जगह जगह धुंधली पड़ती
स्याही
दे रही थी गवाही
मैं गलत था

अक्षरों का जीवन भी
इन्सानों जैसा होता है
कुछ समय चलता है
चमकता है
और फिर
फीका हो जाता है

अक्षरों का जीवन
निर्भर है
किताब के आवरण की
चमक के टिकाऊपन पर
कागज और स्याही के
समन्वय पर
वर्तमान और भविष्य पर
और अंततः
लकड़ी की अलमारी के
कोने मे छुपी दीमक
की पहुँच पर

अक्षर मिटते हैं
क्योंकि सृजनकर्ता की
मेहनत पर
पानी फिरना ही होता है
एक दिन !

<<<< यशवन्त माथुर >>>>  
 

15 May 2012

मन का पंछी


कितना अजीब होता है
मन का पंछी
पल मे यहाँ
पल मे वहाँ
पल मे नजदीक
पल मे मीलों दूर
भर सकता है उड़ान
आदि से अंत तक की
 
मन का पंछी !
बोल सकता है
मौन मे भी
जी सकता है
निर्वात मे भी
कल्पना के उस पार
जा कर
खोज सकता है
रच सकता है
नित नए शब्द
नित नये चित्र
 
मन का पंछी !
मेरे मन का पंछी
अक्सर
ले चलता है मुझको
अपनी असीमित
उड़ान के साथ
शीत ,ग्रीष्म और वर्षा मे
करने को सैर
अनगिनत मोड़ों वाली
उस राह की
जिस पर छिटके हुए हैं
विचारों के
कुछ फूल और
कुछ कांटे!

<<<<
यशवन्त माथुर>>>>
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