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29 October 2011

तलाश मे हूँ......

उस वक़्त की तलाश मे हूँ
जिस वक़्त -
वक़्त तलाश लेगा
खुद को
किसी मानव रूप मे  
और
उसकी उंगली पकड़ कर
मैं चलने की
कोशिश करूंगा
आगे की ओर
भूल कर
अपने
पिछले कदमों के निशां !

26 October 2011

अंधेरा या सवेरा....?

वो जो सामने की
झोपड्पट्टी के बाहर
जलते दीयों की
रोशनी दिखाई दे रही है
उसके भीतर घना अंधेरा है 
और उस अंधेरे मे
कोई जल रहा है

और वहाँ
उस झोपड्पट्टी के आखिरी छोर पर
दूधिया रोशनी मे नहाए
रईसों के आलीशान महल
जो बाहर से दमक रहे हैं
उनके भीतर भी
घना अंधेरा है
और उस अंधेरे मे
कोई कुरेद रहा है
अतीत के ज़ख़्मों को

काले आसमान को चीरती
ये मावस की उजली रात
रह रह कर गूँजती है
आतिशबाज़ी से
पड़वा की पौ फटने तक

इस क्षणिक उजियारे मे
मीलों दूर तक घना अंधेरा है
जिसमे तन्हा हो कर
कोई तलाश रहा है
अपने अस्तित्व को

घना अंधेरा है हर तरफ
हर तरफ जद्दोजहद है
इस सुरंग से बाहर निकलने की

एक लंबी राह सामने है
कदमों मे कंपन है
किन्तु गति नहीं

लग रहा है
ये छद्म सवेरा तो नहीं ?
या ये घना अंधेरा ही है ? 
छंटने के इंतज़ार मे
जो तड़फड़ा रहा है
'तमसो मा ज्योतिर्गमय'
के गूँजते आलाप में
खुद की मुक्ति को!

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दीपावली आप सभी पाठकों को सपरिवार मंगलमय हो! 
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23 October 2011

क्षणिका

बादलों के छंटते ही
आसमान के साफ होते ही
चमकने लगती है धूप
स्मृति पटल पर
जैसे शीशे पर ढुलकती
बूंदों को
अभी अभी साफ किया हो
किसी ने!

20 October 2011

तीन


आज प्रस्तुत हैं मेरी मम्मी की लिखी यह पंक्तियाँ --

सम से समता
निज से निजता 
एक से एकता
लघु से लघुता
प्रभु से प्रभुता
मानव से मानवता
दानव से दानवता
सुंदर से सुंदरता
जड़ से जड़ता
छल से छलता
जल से जलता
दृढ़ से दृढ़ता 
ठग से ठगता
कर्म से कर्मठता
दीन से दीनता
चंचल से चंचलता
कठोर से कठोरता
समझ से समझता
खेल से खेलता
पढ़ से पढ़ता
इस का विधाता
से रिश्ता होता
ये दिल जानता
ये गहरा नाता
गर समझना आता
अपना सब लगता
मन हमारा मानता
दर्द न होता
जग अपना होता
विधाता का करता
गुणगान शीश झुकाता
मानवधर्म का मानवता
से सर्वोत्तम रिश्ता
सेवा प्रार्थना होता
सबसे अच्छा होता
ये गहरा रिश्ता
अगर सबने होता
समझा ये नाता
दिलों मे होता
रामकृष्ण गर बसता
संसार सुंदर होता
झगड़ा न होता
विषमता से समता
आ गया होता
विधाता से निकटता
तब हो जाता
जग तुमसा होता
जय भू माता!

16 October 2011

बेबस मन.....

(Photo curtsy:Google image search)










कागज के किरचों की तरह 
कभी कभी
बिखरता है मन
उड़ता जाता है
कितनी ही ऊंचाइयों को
छूता जाता है
हवा की लहरों के संग
कितने ही सँकरे
तीखे मोड़ों से गुज़र कर
टुकड़ा टुकड़ा टकरा कर आपस मे
छू लेता है ज़मीन को
थक हार कर
बेबस मन...
कागज के किरचों की तरह!

13 October 2011

मैं कौन हूँ ?

कभी कभी लगता है हम इन्सानों को क्या हो गया है। इंसान होते हुए भी क्या इंसान कहलाने लायक हम रह गए हैं? कनुप्रिया जी की फेसबुक वॉल पर शेयर किये गए इस चित्र को देख कर तो यही लगता है। क्या हम इतने पत्थर दिल हो गए हैं कि एक नन्ही सी जान को कूड़े के ढेर  मे चीटियों के खाने के लिए छोड़ दें?
हम कामना करते हैं अगला जन्म इंसान का मिले और कहीं अगले जन्म मे खुद हमारे साथ भी ऐसा हुआ तो?



खैर इस ह्र्द्यविदारक चित्र को देख कर कुछ और जो मन मे आया वह यहाँ प्रस्तुत है-


मैं कौन हूँ
मुझे नहीं पता
ये क्या हो रहा है
नहीं पता
चोट मुझ को लगी
जख्म कहाँ कहाँ बने
नहीं पता
क्या होगा मेरा
नहीं पता

नहीं पता मुझको
किसे कहूँगा माँ
नहीं पता मुझको
पिता कौन मेरा
हर पल है शामों जैसा
न जाने कब होगा सवेरा

घड़ी की टिक टिक के साथ
साँसों के चलते जाने की उम्मीद
अगर कुछ कह सका तो
कहूँगा यही
मुझे नहीं बनना इंसान

इंसान
जिसने फेंक दिया मुझ को
खरपतवार के बीच
ह्रदयहीन पशुओं के चरने को

नहीं बनना मुझे इंसान
क्योंकि
इंसान ने समझा नहीं
मुझ को भी
अपने जैसा

पल पल बीतता पल
और हर पल मुझको है
खुद की तलाश
इन इन्सानों के  बीच
मुझे नहीं पता
मैं कौन हूँ?

09 October 2011

डगमगाते कदम

जब चलना सीखा था
बचपन मे
दादा दादी की
मम्मी की पापा की
उँगलियों को थाम कर
ज़मीन पर खड़े होना
और फिर चलना
कभी दीवार  का सहारा लेकर
चलने की कोशिश
अक्सर गिरना
गिर कर रोना
उठना, संभलना और चलना
डगमगाते कदमों को 
प्रेरणा मिल ही जाती थी
तालियों की
मुस्कुराहटों की
बल मिल ही जाता था
ज़मीन पर स्थिर करने को
नन्हें नन्हें कदमों को

वो बचपन का दौर था
ये जवानी का दौर है
बीतते जाते हर पल की
नयी कहानी का दौर है

कदम अब भी लड़खड़ाते हैं
डगमगाते हैं
चोटिल होते हैं संभलते हैं
चलते जाते हैं

डगमगाना ज़रूरी है
गिरना ज़रूरी है
गुरूर और सुरूर को
ज़मीन पर लाने के लिये
आत्ममंथन के लिये
परिवर्तन के लिये
ज़रूरी हैं
ये डगमगाते हुए से कदम! 

07 October 2011

दंतेवाडा त्रासदी - समाधान क्या है?

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा का नाम यूं तो कोई भी नहीं जानता था पर पिछले एक वर्ष से यह जगह नक्सली हमलों की वजह से खबरों की सुर्खियों मे है। आज सुबह फिर एकबार सैन्य वाहन पर नक्सली हमला हुआ प्रश्न यह है कि आखिर क्या वजह है नक्सली समस्या की? कौन हैं ये नक्सली और क्यों अक्सर अपने कारनामों से सरकार की नाक मे दम किए रहते हैं?

लगभग एक वर्ष पूर्व मेरे पिता जी का लिखा यह आलेख इसी सब पर रोशनी डालता है जिसे उनके ब्लॉग से साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ---

दंतेवाड़ा त्रासदी - समाधान क्या है?  
 
विजय माथुर
 समय करे नर क्या करे,समय बड़ा बलवान.
असर ग्रह सब पर करे ,परिंदा पशु इनसान

मंगल वार ६ अप्रैल २०१० के भोर में छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा में ०३:३० प्रात पर केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल पर नक्सलियों का जो हमला हुआ उसमें ७६ सुरक्षाबल कर्मी और ८ नक्सलियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.यह त्रासदी समय कि देन है.हमले के समय वहां मकर लग्न उदित थी और सेना का प्रतीक मंगल-गृह सप्तम भाव में नीच राशिस्थ था.द्वितीय भाव में गुरु कुम्भ राशिस्थ व नवं भाव में शनि कन्या राशिस्थ था.वक्री शनि और गुरु के मध्य तथा गुरु और नीचस्थ मंगल के मध्य षडाष्टक योग था.द्वादश भाव में चन्द्र-रहू का ग्रहण योग था.समय के यह संकेत रक्त-पात,विस्फोट और विध्वंस को इंगित कर रहे थे जो यथार्थ में हो कर रहा.विज्ञानं का यह नियम है कि,हर क्रिया कि प्रति क्रिया होती है.यदि आकाश मंडल में ग्रहों की इस क्रिया पर शासन अथवा जनता के स्तर से प्रतिक्रिया ग्रहों के अरिष्ट शमन की हुई होती तो इतनी जिन्दगियों को आहुति न देनी पड़ती।
जबहम जानते हैंकि तेज धुप या बारिश होने वाली है तो बचाव में छाते का प्रयोग करते हैं.शीत प्रकोप में ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते हैं तब जानबूझकर भी अरिष्ट ग्रहों का शमन क्यों नहीं करते? नहीं करते हैं तभी तो दिनों दिन हमें अनेकों त्रासदियों का सामना करना पड़ता है.जाँच-पड़ताल,लीपा – पोती ,खेद –व्यक्ति ,आरोप प्रत्यारोप के बाद फिर वाही बेढंगी चल ही चलती रहेगी.सरकारी दमन और नक्सलियों का प्रतिशोध और फिर उसका दमन यह सब क्रिया-प्रतिक्रिया सदा चलती ही रहेगी.तब प्रश्न यह है कि समाधान क्या है?महात्मा बुद्द के नियम –दुःख है! दुःख दूर हो सकता है!! दुःख दूर करने के उपाय हैं!!! दंतेवाडा आदि नक्सली आन्दोलनों का समाधान हो सकता है सर्वप्रथम दोनों और की हिंसा को विराम देना होगा फिर वास्तविक धर्म अथार्त सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रहाम्चार्य का वस्तुतः पालन करना होगा.

सत्य-सत्य यह है कि गरीब मजदूर-किसान का शोषण व्यापारी,उद्योगपति,साम्राज्यवादी सब मिलकर कर रहे हैं.यह शोषण अविलम्ब समाप्त किया जाये.

अहिंसा-अहिंसा मनसा,वाचा,कर्मना होनी चाहिए.शक्तिशाली व सम्रद्द वर्ग तत्काल प्रभाव से गरीब किसान-मजदूर का शोषण और उत्पीडन बंद करें.

अस्तेय-अस्तेय अथार्त चोरी न करना,गरीबों के हकों पर डाका डालना व उन के निमित्त सहयोग –निधियों को चुराया जाना ताकल प्रभाव से बंद किया जाये.कर-अप्बंचना समाप्त की जाये.

अपरिग्रह-जमाखोरों,सटोरियों,जुअरियों,हवाला व्यापारियों,पर तत्काल प्रभाव से लगाम कासी जाये और बाज़ार में मूल्यों को उचित स्तर पर आने दिया जाये.कहीं नोटों को बोरों में भर कर रखने कि भी जगह नहीं है तो अधिकांश गरीब जनता भूख से त्राहि त्राहि कर रही है इस विषमता को तत्काल दूर किया जाये.

ब्रह्मचर्य -धन का असमान और अन्यायी वितरण ब्रहाम्चार्य व्यवस्था को खोखला कर रहा हैऔर इंदिरा नगर लखनऊ के कल्याण अपार्टमेन्ट जैसे अनैतिक व्यवहारों को प्रचलित कर रहा है.अतः आर्थिक विषमता को अविलम्ब दूर किया जाये.चूँकि हम देखते हैं कि व्यवहार में धर्मं का कहीं भी पालन नहीं किया जा रहा है इसीलिए तो आन्दोलनों का बोल बाला हो रहा है. दंतेवाडा त्रासदी खेदजनक है किन्तु इसकी प्रेरणा स्त्रोत वह सामाजिक दुर्व्यवस्था है जिसके तहत गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है.कहाँ हैं धर्मं का पालन कराने वाले?पाखंड और ढोंग तो धर्मं नहीं है,बल्कि यह ढोंग और पाखण्ड का ही दुष्परिनाम है कि शोषण और उत्पीडन की घटनाएँ बदती जा रही हैं.जब क्रिया होगी तो प्रतिक्रिया होगी ही.


शुद्ध रहे व्यवहार नहीं,अच्छे आचार नहीं.
इसीलिए तो आज ,सुखी कोई परिवार नहीं.

समय का तकाजा है कि हम देश,समाज ,परिवार और विश्व को खुशहाल बनाने हेतु संयम पूर्वक धर्म का पालन करें.झूठ ,ढोंग-पाखंड की प्रवृत्ति को त्यागें और सब के भले में अपने भले को खोजें.

यदि करम खोटें हैं तो प्रभु के गुण गाने से क्या होगा?
किया न परहेज़ तो दवा खाने से क्या होगा?

आईये मिलकर संकल्प करें कि कोई किसी का शोषण न करे,किसी का उत्पीडन न हो,सब खुशहाल हों.फिर कोई दंतेवाडा सरीखी त्रासदी भी नहीं दोहराएगी.

06 October 2011

विजय दशमी है आज !

विजय दशमी है आज !
मैं देख रहा हूँ
सामने के पार्क मे खड़े
राक्षसी चेहरा सा लिए हुए पुतले को
बांस और सूखी लकड़ियों के कंकाल
घास-फूस की मांस पेशियों
भीतर के जोड़ों और जगह जगह
बम -पटाखों को खुद मे समाए
रद्दी रंगीन कागज़ की खाल ओढ़े
ये रावण का पुतला
शाम को
जल कर खाक हो जाएगा
शुभ मुहूर्त मे।

पुतला तो जल जाएगा
अपने अवशेष भी छोड़ जाएगा
हो जाएगा 
प्रतीकात्मक दैहिक अंत बुराई का 
किन्तु क्या होगा
उस वासना का
सजीव इंसानी पुतलों के भीतर
जो गहरे तक रची बसी है
क्या होगा  उस आचरण का
जो वचन मे कुछ
कर्म मे कुछ और होता है
क्या होगा उस संतोष का
असंतुष्टि के जाल मे
जो अब तक उलझा हुआ है?

बस ये कुछ
और बहुत से सवाल
बिखरे बिखरे से हैं जिनके जवाब
एक अजीब सी कशमकश
क्या सही है
क्या गलत है

फिर भी
एक रस्म को निभाना ही है
रावण को जलाना ही है
क्योंकि
विजय दशमी है आज !

आप सभी को विजय दशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

02 October 2011

एक दिन का .....

एक दिन के सिद्दांत
एक दिन के आदर्श
एक दिन का सत्य
एक दिन की अहिंसा  
एक दिन खादी
एक दिन की श्रद्धा
एक दिन का स्मरण
आपके भजनों का
आपके त्याग का
सादगी का
विचारों का
एक दिन का
नख शिख अनुसरण
आपका
और बाकी दिन?
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