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28 September 2011

उसका जीवन....

रोज़ पीठ पर बोझा लादे
वो दिख जाता है
किसी दुकान पर
पसीने से तर बतर
उसके चौदह बरस के शरीर पर
बदलते वक़्त की खरोचें
अक्सर दिख जाती हैं
कभी बालू ,सीमेंट ,गिट्टी
और कभी अनाज के बोरों
से निकलने वाली धूल
उसके जिस्म से चिपकती है
जन्मों के साथ की तरह
और जब उसका हमउम्र
उस दुकानदार का बेटा
मुँह मे चांदी की चम्मच
आँखों मे रौब का
काला चश्मा लगाए
खुद को खुदा समझ कर
उसे चिढ़ाता है
मैं देखता हूँ
मंद मंद मुस्कुराती हुई  
उसकी चमकती हुई सी
आँखों को
कुछ कहने को आतुर
पर शांत से होठों को
वो इसमे भी बहुत खुश है
संतुष्ट है इस जीवन से
क्योंकि
शायद यही उसका जीवन है 
पर एक आशा भी है उसके साथ
एक आशा
जो रोज़ रात को टिमटिमाती है
स्ट्रीट लाइट की मंद रोशनी मे
उसकी झोपड़ी के बाहर
जब वो सीख रहा होता है
कुछ पाठ
कूड़े के ढेर मे पायी
किसी गुमनाम की किताब से।

23 September 2011

परिंदों का मन

कितना मुक्त होता है
परिंदों का मन
पल मे यहाँ
पल मे वहाँ
पल मे ज़मीं पर
पल मे गगनचुंबी उड़ान
निश्छल ,निष्कपट
सीमाओं के अवरोध से रहित
पूर्ण स्वतंत्र
जीते हैं खुलकर जीवन। 

परिंदों का मन
बस कुछ सोच ही तो नहीं सकता
मानव मन की तरह
कर नहीं सकता
संवेदनाओं का चीरहरण
घबराता तो नहीं है
भूकंपों से,सुनामियों से
विनाश और विकास से
बंटा तो नहीं होता
भाषा और धर्म मे।

परिंदों का मन
बंधनों से
कितना मुक्त होता है
कितना स्वतंत्र होता है
किसी भी डाल को
आशियाना बनाने को
हरियाली के नजदीक
प्रकृति के नजदीक
परिंदों का मन
कुछ भी गा सकता है
मुक्त कंठ से !

17 September 2011

कुछ लिखना है

कुछ लिखना है
किसी के लिये
एक वादे के लिये
जो अभी अभी किया है
किसी से।
वो कहीं दूर
कर रहा है इंतज़ार
मेरे गुमनाम शब्दों का
न जाने क्यों?
न कोई चाह;
न कोई इच्छा ;
न कोई स्वार्थ;
फिर भी अक्सर
मन के दरवाजे पर
एक दस्तक देकर
वो  
पकड़ा देता है
एक विषय
और कहता है
कुछ लिखो
असमर्थ सा हूँ
कल्पनाशक्ति के
उस पार जाने मे
फिर भी सोच रहा हूँ
कुछ लिखने को
उस वादे के लिए
जो अभी अभी किया है
किसी से।

14 September 2011

वो रो रही है

वो*  रो रही है 
इसलिए नहीं कि
वक़्त के ज़ख़्मों से
आहत हो चुकी है
इसलिए नहीं कि
लग रहा है प्रश्न चिह्न
उसके अस्तित्व पर
इसलिए नहीं कि
अपमान के कड़वे घूंट
उसे रोज़ पीने पड़ते हैं
इसलिए नहीं
कि वो घुट रही है
मन ही मन मे

वो रो रही है
इसलिए कि उसके अपने
खो चुके हैं ;खो रहे हैं
अपनापन
वो रो रही है
इसलिए कि उसकी सौतन**
पा रही है प्यार
उससे ज़्यादा

उसे शिकवा नहीं
किसी अपने से
उसे गिला नहीं
किसी पराये से
पर फिर भी वो रो रही है
रोती जा रही है
बदलती सोच पर
जो छीन ले रही है
उससे उसके अपनों का साथ
काश! कोई उसको
उसके मन को
समझने की कोशिश तो करता
वो तलाश मे है
किसी अपने की
जो उससे कहता
तुम मेरी हो
हमेशा के लिए।
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आशय -
*हिन्दी
**अंग्रेजी
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11 September 2011

पानी आने पर....

शाम के वक़्त
जब आता है नलों मे पानी
हलचल सी दिखती है
हर तरफ
कहीं धुलने लगते हैं कपड़े
हाथों से
वॉशिंग मशीनों से
कहीं धुलती हैं कारें
प्यासे पौधों को
मिलने लगता है
नया जीवन
दिन की गर्मी से बेहोश
धरती पर
होने लगता है छिड़काव
सोंधी सोंधी सी महक
कराती है एहसास
होश मे आने का

होश मे आ जाती है धरती
पानी का छिड़काव पाकर
मगर मैं
अब भी बेहोश हूँ
क्योंकि
मेरे घर की छत पर लगी टंकी
ढुलकाती रहती है
अनमोल धार
पूरी भर जाने के बाद भी
नलों मे
पानी के आने से लेकर
चले जाने तक।

10 September 2011

उड़ना चाहती हूँ

[कभी कभी कुछ चित्रों को देख कर बहुत कुछ मन मे आता है इस चित्र को देख कर जो मन मे आया वह प्रस्तुत है। यह चित्र अनुमति लेकर सुषमा आहुति जी की फेसबुक वॉल से लिया है] 

 
(1)
किसी आज़ाद पंछी की तरह
पंखों को फैला कर
मैं उड़ना चाहती हूँ
मुक्त आकाश मे।
(2)
समुंदर की लहरों की तरह
उछृंखल हो कर
वक़्त के प्रतिबिंब को
खुद मे समे कर
जीवन की नाव पर
हो कर सवार
मैं बढ़ना चाहती हूँ
खुद की तलाश मे।

07 September 2011

बदलती सुबह

सुबह सुबह
सूरज के निकलने तक 
कभी सुनाई देती थी
पास की मस्जिद से आती
अज़ान की आवाज़
मंदिर मे बजते घंटों की आवाज़
चिड़ियों की चहचहाहट
जिसके सुर मे सुर मिला रहे हों
हवा के ताज़े झोंके ।

मैं आज भी सुबह उठा
मगर वह सुबह नदारद थी
कान मे  हेड फोन लगाए
कुछ लोग सुन रहे थे
मुन्नी के बदनाम गीत
एग्झास्ट फैन से टकराते
हवा के सुस्त झोंके
वापस लौट जा रहे थे
सेठ जी के ए सी पर
नो एंट्री का बोर्ड देख कर

कितना फर्क हो गया है
बचपन की वह उच्छृंखल
वह बिंदास सुबह
अब सकुचती हुई
दबे पाँव आती है
और लौट जाती है
सूरज की किरणों के
गरम मिजाज को देख कर।

05 September 2011

वो स्कूल के दिन और मेरी टीचर्स

(स्कूल ड्रेस मे वह बच्चा जिसका ब्लॉग आप पढ़ रहे हैं )
ज शिक्षक दिवस है। पीछे लौटकर बीते दिनों को देखता हूँ, याद करता हूँ  तो मन होता है कि उन दिनों मे फिर से लौट जाऊँ। मैने पहले भी यहाँ एक बार ज़िक्र किया था कि पापा को देख कर मैंने थोड़ा बहुत लिखना सीखा है;स्कूलिंग शुरू हुई श्री एम एम शैरी स्कूल कमला नगर आगरा से जहां क्लास नर्सरी से हाईस्कूल तक( लगभग 5 वर्ष की आयु से 16 वर्ष की आयु तक ) पढ़ाई की। मुझे अभी भी चतुर्वेदी मैडम याद हैं जो 5th क्लास तक मेरी क्लास टीचर भी रहीं थीं और मेरे से विशेष स्नेह भी रखती थीं। वहाँ की वाइस प्रिन्सिपल श्रीवास्तव मैडम और जौहरी मैडम मैडम को भी मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। श्रीवास्तव मैडम और जौहरी मैडम के नाम मुझे अभी भी नहीं मालूम बस सरनेम याद है। श्रीवास्तव मैडम हिन्दी पढ़ाती थीं और जौहरी मैडम इंग्लिश बहुत अच्छा पढ़ाती  थी। मैं पढ़ाई मे शुरू मे ठीक था फिर बाद मे लुढ़कता चला गया लेकिन फिर भी चतुर्वेदी मैडम,श्रीवास्तव मैडम और जौहरी मैडम को मेरे से और मुझे उन से खासा लगाव था। जौहरी मैडम को ये पता चल गया था कि मैं लिखता हूँ बल्कि मैंने ही उनको अपनी कोई कविता कौपी के पन्ने पर लिख कर दिखाई थी तो उन्होने सलाह दी थी कि यशवन्त अपनी कविताओं को इस तरह पन्नों पर नहीं बल्कि किसी कौपी या डायरी मे एक जगह लिखा करो ऐसे खो सकते हैं (और अब तो यह ब्लॉग ही है सब कुछ सहेज कर रखने के लिये)। पूरी क्लास (लगभग 40-50 बच्चों के सामने)  मे उन्होने जो शब्द मेरे लिए कहे थे वो अब तक याद हैं "यह लड़का एक दिन कायस्थों का नाम रोशन करेगा " शायद  यह बात 6th या 7 th क्लास की होगी। पता नहीं कितना नाम रोशन करूंगा या नहीं पर उनका आशीर्वाद अब इतने सालों बाद भी मुझे याद है । इन्हीं जौहरी मैडम ने मुझे स्कूल ड्रेस की टाई बांधना सिखाई थी जो अब भी नहीं भूला हूँ और टाई बहुत अच्छी तरह से बांध लेता हूँ।
अक्सर सपनों मे मैं अब भी खुद को अपने स्कूल (एम एम शैरी स्कूल को मैं अपना स्कूल ही समझता हूँ) की किसी क्लास मे बैठा पाता हूँ जहां जौहरी मैडम ,श्रीवास्तव मैडम और चतुर्वेदी मैडम  पढ़ा रही होती हैं। लगभग 11 साल उस स्कूल को छोड़े हुए हो गए हैं और बहुत सी तमाम बातें मुझे अब भी याद हैं। बहुत सी शरारतें,क्लास्मेट्स से लड़ना ,स्कूल का मैदान और उस मे लगे कटीले तार जिन्हें दौड़ कर फाँदना बहुत अच्छा लगता था और अक्सर चोट भी खाई थी।   वर्ष 1988 मे पापा ने मेरा एडमिशन उस स्कूल मे इसलिए करवाया था क्योंकि वह घर से बहुत पास था। वह स्कूल अब भी वहीं है पर शायद सभी टीचर्स बदल गए हैं और बच्चे तो बदलेंगे ही जिनमे से एक मैं (अब 28 साल का बच्चा) उस शहर से बहुत दूर ,उस स्कूल से बहुत दूर उन टीचर्स से बहुत दूर हो चुका हूँ। लेकिन अपनी इन  सब से पसंदीदा टीचर्स को मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। 

01 September 2011

मुक्त होना चाहता हूँ --

 (1)
बदन को छू कर
निकल जाने वाली हवा से
गर्मी की लू से
जाड़ों की शीत लहर से
मन भावन बसंत से,
बरसते सावन से
हर कहीं दिखने वाली
रोल चोल से
चहल पहल से
खामोशी से
तनहाई से
खुशी से -गम से
खुद से ,खुद की परछाई से
इस कमजोर दिल  से
मुक्त होना चाहता हूँ। 


(2)
ये मुक्त होने की चाह
सिर्फ चाह रहेगी
पत्थरों की बारिश मे
सिर्फ एक आह रहेगी
आह रहेगी;
मन की बेगानी महफिलों मे
रहेगा जिसमे संगीत
यादों का
कुछ कही-अनकही बातों का 
इस सुर लय ताल पर
हिलता डुलता सा
थिरकता सा
तुम्हारा अक्स
मुझे फिर कुलबुलाएगा
मुक्त हो जाने को ।

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