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25 May 2011

अब नहीं....

अब नहीं वो जंगल जिनकी
बचपन में कहानी सुनते थे
दादी माँ की गोद में बच्चे
किस्से सुन सुन सोते थे

अब नहीं वो बब्बर शेर
जिसकी दहाडें डराती थीं
अंगूर खट्टे देख जो लोमड़ी
अक्सर ही हंसाती थी

नहीं रहीं पञ्चतंत्र की बातें
न गोदी है न लोरी है
पांच बरस में बस्ता भारी
जाने कैसी मजबूरी है ?

23 comments:

  1. सच कहा है यशवंत जी .आज कल सब कुछ बदल चुका है .दादी और नानी भी पहले वाली नहीं रही .

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  2. सही बात है , बहुत कुछ परिवर्तन हो चुका है ....

    आधुनिकता की अंधी दौड़ में जंगल क्या आदमी की संवेदनशीलता भी बहुत घट चुकी है ...

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  3. नहीं रहीं पञ्चतंत्र की बातें
    न गोदी है न लोरी है
    पांच बरस में बस्ता भारी
    जाने कैसी मजबूरी है ?

    सच में बच्चों पर भी बढ़ता बोझ देख कर मन उदास हो जाता है ...!!
    बहुत अच्छा लिखा है ...!!

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  4. सच्चाई को आपने बड़े सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! सही में पहले जैसा अब कुछ भी नहीं रहा सब कुछ बदल रहा है!

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  5. बहुत सुंदर कविता आज के हालातों को दर्शाती हुई, जीवन परिवर्तन का दूसरा नाम है !

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  6. बेहद खूबसूरत कविता
    उम्दा प्रस्तुती!

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  7. आधुनिकता की दौड़ में आदमी सब कुछ भूल रहा है

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  8. बच्चों की व्यथा को आपने बहुत खूबसूरती से शब्दों में उकेरा है.बधाई .

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  9. अब तो बच्चों का बचपन ही नहीं बचा...
    बहुत अच्छी रचना...

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  10. बहुत सच कहा है...आधुनिकता की दौड में आज बचपन खो गया है..

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  11. very true.... we are becoming insensitive and block-heads day by day.. Repercussions of modern times.

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  12. बहुत सुन्दर और प्रवाहमयी रचना!

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  13. अरे पॉच बरस तो बहुत कह दिया आपने। दो साल में ही यहॉ बस्ता भारी हो जाता है।

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  14. यही आज का सच है...

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  15. मुझे लग रहा कि कमेंट हो गया है..

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  16. such kaha hai apne ab sab kuch kaha pahle jaisa raha hai...

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  17. नहीं रहीं पञ्चतंत्र की बातें
    न गोदी है न लोरी है
    पांच बरस में बस्ता भारी
    जाने कैसी मजबूरी है ?

    यही का सच है...

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  18. इसे आधुनिकता का नशा कहते है !

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  19. Aah! sach hi to hai...panch baras me target bhi bhaari...bachche hain sapno ki savari....oh!

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  20. आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद!

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