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11 March 2011

उफ़! ये शोर

 (1)
उफ़! ये शोर
जो आ रहा है
मधुर संगीत का
टी  वी पर आ रहे 
वर्ल्ड कप मैच का
सड़क पर बजते
डीजे का
मोबाईल  पर बजती
मन पसंद धुन का
दीवारों  और
पर्दों को भेद कर
खिड़कियों से
या
छप्पर के
दरवाज़े की ओट से

(2)
वो सुनते हैं
झेलते हैं
और रह जाते हैं
मन मसोस कर
जो जुटे हुए हैं
दिन रात एक कर
अपनी मंजिल पाने को
मोटी-पतली 
किताबों के साथ

(3)
एक कमरे में बंद
सामने रखी मेज
और कुर्सी पर
सर टिकाये
मन का पंछी
फडफडा रहा है
इस परीक्षा से
या  फिर
जी  ललचाते
इस शोर से
मुक्ति पाने को !

12 comments:

  1. वो सुनते हैं
    झेलते हैं
    और रह जाते हैं
    मन मसोस कर
    जो जुटे हुए हैं
    दिन रात एक कर
    अपनी मंजिल पाने को
    मोटी-पतली
    किताबों के साथ
    kuch ker hi nahi sakte , rahna hai mann masos ke

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  2. उफ़ यह शोर ...बहुत सुंदर बिम्ब लेकर रचनाएँ लिखी है.... बहुत खूब

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  3. तीनो रचनाएँ अच्छी है ... और विषय एक ही होने के कारण एक दुसरे से जुड़े हुए हैं ... दरअसल तीनो एक साथ ही अच्छी लग रही हैं ... अलग अलग उतना मज़ा नहीं आता ...

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  4. सही कहा आपने …………बच्चो मे मन का सुन्दर चित्रण कर दिया ।

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  5. sundar bimbon se saji rachnayen apni baat kahne me samarth .

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  6. बच्चों की उलझन का सटीक चित्रण ...
    शुभकामनायें.....

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  7. मन का पंछी
    फडफडा रहा है
    इस परीक्षा से
    या फिर
    जी ललचाते
    इस शोर से
    मुक्ति पाने को !

    बहुत सुन्दर और सार्थक रचना..

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  8. बहुत सुन्दर और सार्थक

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  9. आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद!

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  10. बहुत सुन्दर और सार्थक चित्रण कर दिया ।

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