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30 September 2010

मैं नारी हूँ!

सुनो! ओ पाखंडी-
दुनिया वालों
ध्यान से सुनो!
चाहे जितने भी कांटे
तुम बिछालो मेरी राह में
चाहे जितने भी आंसू
तुम दे दो मुझ को
ये न समझना कि
मैं हार गयी हूँ

हाँ
कुछ पल को रूकती हूँ
ठिठकती हूँ
हंसती हूँ-
तुम्हारी सोच पर
कितने मूर्ख हो तुम
जो अब तक
मुझ को अबला समझते
आ रहे हो

वो बल
वो सामर्थ्य है मुझ में
असीमित दर्द सह कर भी
मैं
दुनिया को-
तुम को -
जन्म देती हूँ

और तुम
तुम मुझ को
मार देते हो
दुनिया में आने से पहले
शायद इसलिए
कि मैं नारी हूँ!


(जो मेरे मन ने कहा.....)

29 September 2010

नहीं चाहता पुनर्जीवन

हाँ
लगता है
सारे सपने कहीं खो गए हैं
जो देखे थे-
एक पल को लगा था
शायद सच होने वाले हैं
और मैं
आज़ाद होने वाला हूँ
एक रोशनी दिखी थी
पर ये नहीं मालूम था
कि एक बार फिर से
अँधेरे में  खो जाऊंगा
और अब
अब तो कोई तमन्ना ही नहीं है
इस सन्नाटे से
इस अँधेरे से
बाहर आने की
लक्ष्य विहीन
एक अंतहीन सोच में डूबा हुआ
मैं
मैं-अब और नहीं चाहता पुनर्जीवन
मैं अपने खोए हुए सपनों
में  कहीं खो जाना चाहता हूँ
फिर वापस न आने के लिए.


27 September 2010

पता नहीं

बड़ी अजीब होती है  
ये जीवन की राह
किस मोड़ पर ले जाए
पता नहीं

मैं आज जहाँ खड़ा हूँ
बड़ा अजीब मोड़ है
हर तरफ गड्ढे ही गड्ढे
क्यों कांटे बिछे हैं
पता नहीं

ये भावनाएं हैं
जो घुमड़ती हैं हर तरफ
चुभती हैं क्यों दिल में
पता नहीं

बड़ी अजीब होती है
ये जीवन की राह
कब खुशी कब गम
पता नहीं.


(जो मेरे मन ने कहा.....)

मिले सुर मेरा तुम्हारा

मिले सुर मेरा तुम्हारा!
भारत की  विविध  एकता और संस्कृति को दिखाते इस गीत को कभी बचपन में मैं दूरदर्शन पर देखा करता था.youtube पर सर्च करते करते अचानक यह वीडियो मिला तो सोचा कि क्यों न अपने ब्लॉग पर आप सब के साथ इसे साझा करूँ.



(जो मेरे मन ने कहा.....)

26 September 2010

शायद नहीं!

ये चाँद जो दीखता खूबसूरत है
दूर पृथ्वी से
क्या वाकई
इतना सुन्दर है
क्या चाँद का टुकड़ा
कह देने से
कोई इठला सकता है
अपनी सुन्दरता पर
या
ये एक भ्रमजाल है
छलावा है

ये कैसा आकर्षण?
क्या रूप ही
सब कुछ होता है..
क्या मीठा ही
अच्छा होता है..

शायद नहीं!

(जो मेरे मन ने कहा.....)

24 September 2010

रिश्ते

 कभी कभी दूर के भी
बहुत पास हो जाते हैं
और कभी पास के भी
बहुत दूर हो जाते हैं

जब जुड़े हों तार
दिल से दिल के तो क्या करें
कल के अनजान आज खुद की
शान  बन जाते हैं

ये रिश्ते हैं
इन्हें चाहे कोई भी नाम दे दो
बिन कहे सुने ही सब कुछ
समझ जाते हैं

बहुत कोमल होती है
ये प्यार की डोर
विश्वास अगर टूटे तो
रिश्ते भी बिखर जाते हैं

आओ बातें करें कुछ मन की
बांटे अपने कुछ सपने
रिश्ते वो सपने हैं
जो खुद ही सच हो जाते हैं

कुछ रिश्ते अपने आप बन जाते हैं.


(जो मेरे मन ने कहा....)

22 September 2010

क्या यही बचपन है?

रोज़ सुबह
मेरे घर के सामने से
जाते हैं स्कूल को
छोटे छोटे बच्चे
एक मीठी से मुस्कान होती है
उन के निश्छल चेहरे पर

और वो
अपनी नाज़ुक सी पीठ पर
चले जाते हैं
ज्ञान का बोझा ढोते हुए

हाँ!ज्ञान का बोझा ढोते हैं
ये प्यारे प्यारे बच्चे
वो ज्ञान
जो सिर्फ सिमटा हुआ है

बस्ते में रखी किताबों तक
वो ज्ञान
जो पार तो  करा  देगा
परीक्षा की नदी को

मगर क्या
पास करा देगा
जिंदगी के असली इम्तिहान  में?

ये छोटे छोटे
प्यारे प्यारे  बच्चे
जब खेलते हैं
हँसते हुए
कितने अच्छे लगते  हैं

मगर जब रोते हैं
कम नंबर आने पर
जब पिटते हैं
अपने पालन हारों से
दिल कचोट जाता है

क्या यही बचपन है?



20 September 2010

मधुशाला...

आज फिर मन मचल रहा है
मय का प्याला पीने को
दबी छुपी कुछ बातें मन की
मधुशाला में कहने को
दुनिया में कोई नहीं है
मेरी थोड़ी सुनने वालाअपनी कुछ न कहती मुझ से
सुनती मुझ को मधुशाला.

18 September 2010

मजदूरनी

(शायद हाईस्कूल में महाकवि निराला की एक कविता पढ़ी थी-'वो तोडती पत्थर' वर्ष २००० में उसी से प्रेरित हो कर मैंने जो कविता लिखी थी उसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-)
पत्थर तोडती
'निराला' की नारी
अक्सर दिखती है
सड़क के किनारों पर
तपती दुपहरी में
कंपकपाती सर्द लहरों में
वर्षा ऋतु की
अलसाती धुप में
क्रूर कुटिल भेड़ियों की
परवाह किये बगैर
उस के अश्रुओं और
स्वेद की बूँदें
चोट करती हैं
काले पथरीले दिलों पर
और वो
मुस्कुराती है
समाज के सीने पर
उभर आई
खरोचों को देख कर
उस की किस्मत में जो था
वो झेल रही है
न जाने कब से
सदियों से
या,बरसों से
यूँ ही खुले आसमाँ के तले
फुटपाथों पर
अक्सर खेलती है
मौत से
मत कहो उसे
अबला या बेचारी
'निराली ' है 'निराला' से
'निराला' की नारी.
(जो मेरे मन ने कहा...)

17 September 2010

ले चलो मधुशाला मुझ को

ले चलो मधुशाला मुझ को
मुझ को मधु रस पीना है
जैसे जीते और झूमते
मुझ को वैसे ही जीना है.
नहीं चाहना नहीं तमन्ना
ध्येय नहीं,अर्थहीन है जीवन
जिसको  किया सर्वस्व समर्पित
वही नहीं,है विरहापन
किसे बताऊँ अपनी वेदना
कोई नहीं सुनने वाला है
मेरा साथी,मेरा साकी
मेरी केवल मधुशाला है.



क्यों हो तुम दूर मुझ से...............

क्यों हो तुम
दूर मुझ से
क्यों टकटकी लगाये
देखती रखती हो अपलक
चाहती हो
आकर मुझ से मिलना
और मेरे सीने से लगकर
तुम रोना चाहती हो
मैं समझता हूँ
मगर मैं क्या करूं?
और शायद तुम भी
कुछ नहीं कर सकती
बस महसूस  करती हो
 
मुझ को
पीती हो मेरे आंसुओं को
उन आंसुओं को
जिन्हें देख कर
तुम्हारे सीने पर
चोट करने वाला
वो प्राणी (इंसान)
बरसात की बूँदें समझ कर
खुश होता है
और तुम (एक हंसी का स्वर..)
सब जान कर
सब समझ कर भी
शांत रहती हो
घुटती रहती हो
सब दर्द झेलती रहती हो
और जब सह नहीं पाती हो
तब टूट कर बिखर जाती हो
 
शायद यही हमारी नियति है
सच्चा प्रेम
शायद कभी नहीं मिलता
किसी को भी नहीं मिलता
 
उनको भी नहीं
जो मेरे साये में
और
तुम्हारी गोद में
बसे हुए हैं
 
हाँ फिर भी
फिर भी
मुझ को
इंतज़ार रहेगा
तुम्हारे मिलन का
आजीवन!
 
 
 
 
 
 



 

16 September 2010

चाय का प्याला

सहता है तपन
पर डिगता नहीं है
थकान में चूर हो जाता है,
पर हिलता नहीं है
चाय का प्याला!
किसी महापुरुष की तरह,
प्रेरणा देता है,
झंझावातों में भी
स्थिर,अटल रहने की
चाय हो या कोई और
गरम द्रव पदार्थ
अणुओं की टकराहट सहता,
और दिखाता है यथार्थ
हार होगी तुम्हारे दुश्मनों की,
तैयार रहोगे यदि,
सहने को हर वार
कुछ पल में ठन्डे पड़ जाएँगे 'वो'
चाय की ही तरह
और तुम मनाओगे
जीत का जश्न,
चाय के प्याले की तरह..
 
विशेष:-मुझे याद नहीं ये कविता मैंने बचपन में कब लिखी थी,किन्तु अपनी मम्मी के विशेष आग्रह पर उनकी पसंद की ये कविता आप सब के साथ साझा कर रहा हूँ.
 

15 September 2010

In search of beauty & love.....

I walk
on the roads;
on the streets;
I walk
in the people's mind
but
still;
in searching of beauty;
in searching of love;
in searching of happiness;
in searching of smile;
Oh!my God
what a scene it is..
i saw;
a group of little children
sitting down
infront of their;
roadside hut
they seems
I hav some food for them
thay smile
&
I learn;
People get pain
to get love
to be loved
by the people
they love.


(Note:-I just try to writing in english;Readers are requested to point out the gramatical mistakes for correction.)

14 September 2010

एक श्रद्धांजली....

एक श्रद्धांजली मेरी
आज प्रिये स्वीकार कर लो
आज तुम्हारी पुण्य तिथि है
पुष्प चक्र स्वीकार कर लो
मैं नतमस्तक हूँ
स्मृति में
इस मृत्तिका में तेरी गंध है
श्वासों में जो घुल मिल कर
करती मेरा
आलिंगन है
तुझ से मेरा प्रेम पवित्र
तुम 'हिंदी' और 'हिंदी' मैं
हिन्दीमय मेरे अधर --
मेरा प्रणय
स्वीकार कर लो
एक श्रद्धांजली मेरी
आज प्रिये स्वीकार कर लो


13 September 2010

ये लेखनी है...

ये लेखनी है
जो चलती रहेगी
तूफानों में औ
आँधियों में
दिल की वीरानियों में
गहरी तनहाइयों में.....
है यही मेरी मित्र
तो क्यों मैं
अकेला
जिंदगी के सफ़र में
सफ़ेद पृष्ठ मेरा..
मैं राही हूँ
चलता जा रहा हूँ
घुप्प अँधेरे में-
तलाशने को सवेरा
मैं कहने देता हूँ
लोगों को लोगों की बातें
दिल को कचोटने वाली
दर्द देने वाली बातें
पर 'मैं'
'मैं' हूँ
ये 'मैं' जानता हूँ
करता वही हूँ
जो 'मैं'
ठानता हूँ
मैं रोशनी हूँ
उन चिरागों के तले
खुशफहमी में खुद को
चिराग समझते हैं जो
मेरी ठोकरों से दुनिया
अक्सर हिलती रहेगी
लेखनी वो लौ है
जो हमेशा जलती रहेगी.


12 September 2010

लोग कहते हैं मैं...........

लोग कहते हैं
मैं आउट ऑफ़ डेट हूँ
अंडरवेट हूँ
 
उनकी नज़रों में मैं-
 
पुराने गीत सुनता हूँ
फैशन में नहीं जीता हूँ
शराब नहीं पीता हूँ
फालतू नहीं घूमता हूँ
सम्पादकीय पढता हूँ
कभी कभी लिखता हूँ
 
इसीलिए खटकता हूँ!
 
पर मैं-
खुद का फेवरेट हूँ
इसीलिए ग्रेट हूँ
चमकती हुई प्लेट हूँ
धरती पर आया लेट हूँ
इसलिए अंडरवेट हूँ.
 
 
 
(जो मेरे मन ने कहा.....)
 
 
 
 
 
 
 
 

11 September 2010

भारत की महान न्याय प्रणाली ...

ये है हमारे देश भारत की महान न्याय प्रणाली!!!!आप क्या कहते हैं?
(जो मेरे मन ने कहा....)

कविता मेरी दृष्टि में.....(मेरी ५१ वीं पोस्ट.)

भाव ना हों अगर तो क्या होगा
भावों में ना बहें तो क्या होगा
ये मन की भावुकता है-
उतर आती है जो शब्दों में
ये शब्द अगर ना हों तो
कविता का क्या होगा.

मुझे नहीं पता
क्या मात्रा
क्या हलन्त
क्या पूर्ण विराम-
नहीं पता
मुझे नहीं पता
व्याकरण
और उसके बंधन
बस इतना पता है
कविता है-
मेरा अंतर्मन

कविता
जो बन जाती है कभी
सुर-सरगम
ढल जाती है
गीतों में
एक आवाज़ बन कर
देती है
अ-भावों को भी भाव
सहज सरल सरस
और सार्थक बनकर

मैं
उस कविता को गुनगुनाता हूँ
जो भावों में बह जाती हो
शब्दों के साज पर सज कर
कुछ कहती हो
कह जाती हो.



(जो मेरे मन ने कहा....)

10 September 2010

हम तो चले थे ख्वाबों में........

हम तो चले थे ख्वाबों में
खुद को ही ढूँढने
रूह मिली राह में पर
उसको पहचान ही न सके
ज़ख़्मी दिल में उठी हूक चुभीली सी इक
कब हुआ दर्द हम जान ही न सके। 

रहबर से मिलन की ख़ुशी का समां
एक हो रहे थे ये ज़मीं आसमा
ज़मीं पे ज़नाज़ों की बहुत भीड़ थी
हम अपने ही ज़नाजे को पहचान न सके। 

हम तो चले थे ख्वाबों में
खुद को ही ढूँढने
पर ख्वाबों से बाहर न आ ही सके
आह ले रहे थे खुछ लोग गम से सिहर कर
मगर हम तो दोज़ख का
मज़ा पा रहे थे।

-यशवन्त माथुर ©

मैं अकेला हूँ..

मैं नहीं सुनहरी प्रातः
ऊषा पूर्व की बेला हूँ
क्षण भंगुर जिसका आस्तित्व
मैं अकेला हूँ!

मैं निर्जन वन के शांत स्वरों में
चातक की विरहा पुकार नहीं
विद्वेषी ज्वाला का गोला
मैं अकेला हूँ!

कर्म का मर्म मैं क्या जानूं
मैंने तो बस ये जाना है
शांत नीर पर तरंग का रेला
मैं अकेला हूँ!

बासंती बयार नहीं
मैं पतझड़ का समय चक्र हूँ
जिसका नव प्रवर्तन निश्चित
मैं अकेला हूँ!

मैं नहीं तेजोमय
तम की अंधियारी बेला हूँ
आशा की किरण निहारता
मैं अकेला हूँ!


(जो मेरे मन ने कहा....)

टिप्पणी -प्रस्तुत

पंक्तियाँ१३/१२/२००४ को लिखी गयी थी.

09 September 2010

समानता

ऋग्वेद के अंतिम सूक्त में कहा गया है-

समानी व् आकूतिः सामना ह्र्दयानी वः।
समानमस्तु वो मनो यता वः सुसहासति॥
 
अर्थात  हे मनुष्यों!तुम्हारा ध्येय सामान हो,तुम्हारा ह्रदय सामान हो,तुम्हारा मन सामान हो जिससे तुम सब का व्यवहार सामान हो सके।
इस मन्त्र में तीन बातें कही गयीं हैं-
(१)ध्येय की समानता (२) ह्रदय की समानता और (३) मन की समानता होने पर ही हम सब अर्थात  विद्यमान जगत के समस्त प्राणी सुख से जीने की आशा कर सकते हैं क्योंकि जब इन तीनों में परस्पर समन्वय होगा तो हमें कोई कष्ट हो ही नहीं सकता.आइये जरा और गहराई से विचार करें-
(१)ध्येय की समानता-अर्थात प्रत्येक मनुष्य का एक निशित ध्येय होना चाहिए.बिना ध्येय के हम अपने कर्म ठीक प्रकार से नहीं कर सकते.ध्येय के निर्धारित कर लेने के पश्चात ही हमें ध्येय को प्राप्त करने के साधन सुलभ हो सकेंगे और उन साधनों के सहयोग से कर्म करते हुए हम सन्मार्ग पर चल कर ही अपना ध्येय प्राप्त कर सकते हैं.ऐसा नहीं है कि ध्येय की प्राप्ती सुगमता पूर्वक ही हो जाये अपितु ध्येय प्राप्ति के मार्ग में अनेकों बाधाएं भी आती हैं और उन बाधाओं का यदि हमने दृढ़ता पूर्वक सामना कर लिया तो फिर ध्येय को प्राप्त करने से हमें कोई नहीं रोक सकता.एक उदाहरण के तौर पर हम कह सकते हैं कि शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन का लक्ष्य (ध्येय)नयी दिल्ली से भोपाल तक जाना है रास्ते में कहीं कहीं बिना निर्धारित स्टेशन अथवा सुनसान इलाकों में तकनीकी कारणों से भी इसे रूकना पड़ता है फिर भी यह ट्रेन आखिरकार विलम्ब से ही सही अपने ध्येय (अथार्त भोपाल)तक पहुचती ही है.इसके विपरीत दिल्ली से चलते समय यदि निर्धारित न किया जाता कि कहाँ जाना है तो पाठक जन समझ सकते हैं कि क्या स्थिति होती.ध्येय की समानता का तात्पर्य इस श्लोक में यह है कि बाल्यावस्था में सभी का ध्येय विद्या अर्जन करना हो,युवावस्था में गृहस्थी चलाना व् धन संग्रह करना हो,तथा वृद्धावस्था में मोक्ष प्राप्ति हेतु ईश्वर की आराधना करना व् बालकों व् युवाओं का अपने ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर शैक्षिक मार्गदर्शन करना होना चाहिए. वृद्धावस्था में ईश्वर से हमें यह भी प्रार्थना करनी चाहिए कि जीवन की बीत चुकी अवस्थाओं में यदि हम से अनजाने में कोई अपराध तो ईश्वर उस हेतु हमें क्षमा करे-

यदि दिवा यदि रक्त्मेनांसी चक्र्मा वयम।
वायुर्मा तस्मादेनसो विश्वन्मुंचतवं हसः॥
 
(२)ह्रदय की समानता -ह्रदय की समानता से आशय ह्रदयगत भावों की समानता से है.हम सबके ह्रदय शुद्ध,पवित्र और निर्मल हों.प्राणिमात्र के प्रति भी कोई दुर्भावना न रहे जिससे हम सद्कर्म करने को प्रेरित हों.यदि ह्रदय में विद्वेष की अग्नि धधकती रहेगी तो हम अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य से विमुख हो जायेंगे और परमपिता द्वारा मृत्यु के पश्चात् दिए जाने वाले मोक्ष से वंचित हो सकते हैं.इसलिए समस्त मानवों की ह्रदयगत कामनाओं का पवित्र होना आवश्यक है।

(३)मन की समानता-अर्थात प्रत्येक मनुष्य का मन शुद्ध विचारों से युक्त होना चाहिए तभी हम ईश्वर प्राप्ति की अभिलाषा रख सकते हैं.यदि आधुनिक दृष्टिकोण से सोचें तो मन world wide web (www) के सामान है.हम जानते हैं की world wide web इन्टरनेट पर उपलब्ध विभिन्न प्रकार की साइट्स का एक जटिल समूह है,जिसमे एक ही विषय पर अनेकों साइट्स हैं और दुनिया के किसी भी स्थान से हम कंपयूटर द्वारा इच्छित जानकारी प्राप्त कर सकते हैं.इन साइट्स के समूह में कुछ अच्छी साइट्स है तो कुछ बुरी साइट्स भी हैं.ठीक इसी प्रकार हमारे मन में कुछ अच्छे विचार हैं तो कुछ बुरे विचार भी हैं और यह हमारे ऊपर निर्भर करता है की हम कौन से विचारों से प्रेरित हो कर अपना कार्य करते हैं.यदि हम अच्छे विचारों की अधिकता के कारन अच्छा कार्य करते हैं तो अच्छे कार्य का अच्छा परिणाम भी प्राप्त करते हैं.यजुर्वेद के अध्याय ३४ में हम ईश्वर से अपने मन को शिव अथार्त संकल्पों (विचारों)से युक्त बनाने की प्रार्थना करते हैं-

यज्जाग्रतो दूरमुदैति देवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरंगमम ज्योतिषाम ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥
 
इस प्रकार यदि हमारा मन अच्छे संकल्पों (विचारों) से युक्त रहेगा तो निश्चय ही हम सब सुखपूर्वक रह सकेंगे।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं की ध्येय,मन और ह्रदय के अंतर्संबंधित होने के कारन इन तीनों की समानता अथार्त इन तीनों में समन्वय का होना आवश्यक है.वेद हमें धर्म के नाम पर बांटते नहीं बल्कि समभाव का सन्देश देते हैं.वेदों ने प्रत्येक मनुष्य का गुण ,कर्म और स्वभाव के आधार पर वर्गीकरण किया है जो वर्ण व्यस्था कहा जाता है.वेदों में समानता का आशय प्रत्येक प्राणी में ध्येय, मन और ह्रदय की समानता है जातियों की मतैक्यता से नहीं.सवाल यह उठता है कि आज के गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में जबकि प्रायः सभी का उद्देश्य साम,दाम,दंड,भेद की नीति से अर्थप्राप्ति जी रह गया है क्या हम ध्येय,मन और ह्रदय की समानता की उम्मीद कर सकते हैं? निश्चित ही इसके लिए हमें नदी की धारा के विपरीत चलने का प्रयास करना होगा.आवश्यकता है केवल मजबूत इच्छाशक्ति और सकारात्मक मानसिक अभिप्रेरणा की.

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभाग भवेत् ॥




नोट --प्रस्तुत आलेख अक्टूबर २००४(यह लेखक तब बी.कॉम अंतिम वर्ष का छात्र था) में आगरा से प्रकाशित एक त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है.

जय जय नेता जी की.....

ढोल बज रहे थे

नारे लग रहे थे

गले में हार डाले नेता जी

चल रहे थे!

नेता जी चल रहे थे

समर्थक नाच रहे थे

विजयी मुद्रा में

सब लोग

गद गद हो रहे थे!

हम ने पूछा तो किसी ने बताया

न पार्टी बदली थी

और न मंत्री की

कुर्सी मिली थी

कल पहली बार

'वो' उनसे हारी थी

नेता जी ने मक्खी मारी थी!!

(जो मेरे मन ने कहा...)

08 September 2010

क्या ये भी कोई बात है..?


का ये दिन


दोपहर फिर शाम


सुनहरी रात है


फिर वही सुनहरे सतरंगी सपने


क्या ये कोई नयी बात है?


हाँ नयी बात है मेरे लिए


रोज़ सुबह सूरज का उगना


देना रौशनी


और फिर लौट जाना


जगमगाने उन्हें


जहाँ अब तलक रात है।


ये बहुत अजीब सी बात है


मेरे लिए


निरन्तर चलना


घुमते रहना


अपने पथ पर


बिना थके


हर पल


पल पल पल हर पल


अगर कभी रुक जाए समय


भूल जाए सूर्य


चलना अपनी राह


तो क्या होगा?


क्या ये भी कोई बात है-


हाँ मेरे लिए ये भी एक बात है


क्योंकि तुम्हारा जीवन दिन


और


मेरी हर सांस में रात है




(जो मेरे मन ने कहा........)











07 September 2010

काशी के पंडितों का अद्भुत ज्ञान......?


क्या बात कही काशी के पंडित जी ने.कहते हैं ईश्वर कोई तत्व नहीं है.ये उस काशी के पंडितों का कहना है जो काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के लिए प्रसिद्द है.ये बात स्टीफन होकिंग के ब्रह्मांड की संरचना एवं जीवन की उत्पत्ति के नए सिद्दांत के सन्दर्भ में कही गयी है.एक तरफ जहाँ स्टीफन होकिंग ब्रह्मांड की उत्पत्ति को भौतिकी के सिद्दांतों पर आधारित बता रहे हैं वहीँ हमारी काशी के पंडितों का कहना है की भौतिकी के नियम -शब्द-गंध-रस-स्पर्श और रूप इन पांच पर आधारित हैं.अगर इनकी मानें तो शब्द का सम्बन्ध-कान से,स्पर्श का-त्वचा से,रूप का-दृष्टि से,रस का -जीभ से और गंध का सम्बन्ध-नाक से है.कोई बच्चा भी ये सम्बन्ध बता सकता है तो आप के ज्ञान का क्या मतलब?क्या आपने कभी इस पर गहन विचार किया है?

यदि हम क्रांति स्वर पर उपलब्ध आलेखों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि भगवान -प्रकृति के पञ्च तत्व और भौतिकी के इन पांच आधारभूत सिद्दांतों में परस्पर सम्बन्ध है.आइये देखें कैसे-


भ-भूमि-गंध

ग-गगन-शब्द

व्-वायु-स्पर्श

I-अग्नि-रूप

न-नीर-रस


व्यापक अर्थों में भूमि का सम्बन्ध- गंध से है.आप अनुभव कर सकते हैं गर्मी की तपती दोपहर या वर्षा जल के धरती पर पड़ने से उठती सोंधी महक को.गगन अथार्त आकाश का सम्बन्ध शब्द से है.हमारी वाणी में कम्पन का प्रभाव आकश तत्व से उत्पन्न होता है.वायु के माध्यम से हम स्पर्श का अनुभव करते हैं.अग्नि का सम्बन्ध रूप (निर्माण) से है.अग्नि तत्व ही किसी वास्तु कि संरचना निर्धारित करता है भोजन को भी अग्नि में ही पकाया जाता है.अग्नि तत्व विखंडन और नव निर्माण से सम्बंधित है.और नीर यानी जल का रस से सम्बन्ध आप जानते ही हैं।

अतः स्पष्ट होता है कि भगवान कोई मनुष्य या कोई दिव्य शक्ति नहीं हमारे हर तरफ मौजूद पंचतत्व ही हैं।

भगवान को हम देवता भी कहते हैं क्यों?क्यों कि जो देता है वो देवता है और ये पंचतत्व हमें देते ही हैं कुछ लेते नहीं हैं.इन पञ्च तवों के समन्वय से ही जीवन कि उत्पत्ति हुई है.और जीवन का अंत भी पंचतत्वों से ही होता है.अंग्रेजी भाषा में हम भगवन-GOD कहते हैं जिसका सीधा सा अभिप्राय Generator-Operator-Destroyer है.यानी ब्रह्मा,विष्णु और महेश.मुस्लिम धर्म ७८६ को अपना लकी नंबर कहते हैं क्यों कि ये अंक भी GOD से सम्बंधित हैं.(७८६ के सन्दर्भ में अपनी अगली किसी पोस्ट में अपने विचार रखूँगा)

ज्यादा कुछ न कहते हुए सारांश में सिर्फ इतना ही कहूँगा कि विज्ञान सार्वभौमिक है जिसके कुछ आधारभूत नियम हैं.ज़रुरत तो बस सही रूप में सृष्टि कि उत्पत्ति के विज्ञान को समझने की है।
(जो मेरे मन ने कहा...)

देहदान

एक कवि ने लिखा है--

''अनर्थ है कि बंधू ही न बंधू की व्यथा हरे।

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥''


उक्त पंक्तियाँ हमारे जीवन में प्रतिदिन सार्थक हैं.हम पुण्य कमाने का,परोपकार करने का हर संभव प्रयास करते हैं.क्यों कि हम मनन अथार्त सोच समझ कर कोई भी कार्य कर सकते हैं इसलिए हम मनुष्य कहलाते हैं अन्यथा मनुष्य और पशुओं में किसी प्रकार का कोई अंतर नहीं है.मनुष्य भी भी पशुओं के सामान भोगी है अगर उसमे कुछ सोचने की सामर्थ्य न हो।


दान पुन्य कमाने का सबसे आसान और असरकारक माध्यम है.बड़े बड़े धन्ना सेठ जो प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से अपने कर्मचारियों का शोषण करते हैं किन्तु आयकर छूट हासिल करने के लिए वे कई तरह की गैर सरकारी संस्थाएं बना कर उन के माध्यम से समाज सेवा और परोपकार का राग आलापते हैं.शोषण से कमाया गया पैसा शोषित को ही दान दे दिया जाता है और साहब का बैठे बैठे नाम भी हो जाता है कि सेठ जी तो बड़े दयालु हैं और न जाने क्या क्या।


दान सिर्फ पैसे से ही नहीं होता बल्कि हमारे शास्त्रों में तन मन धन से दान देने को कहा गया है.लेकिन शास्त्रों की बातें तो आज बस स्कूली शिक्षा तक तक सिमट कर रह गयीं हैं.खैर इन सब कि गहराई में मैं नहीं जाना चाहता.


इधर कुछ समय से दान का एक नया रूप चलन में आया है.एक ऐसा दान जिसमे इस बात का कोई भेद नहीं है कि दानी अमीर है या गरीब.और न ही दान करते समय हमारे अंतर्मन को कोई कष्ट होता है.देहदान जी हाँ अपने मृत शरीर का दान कीजिए और पुन्य कमाइए.आज जबकि अंतिम संस्कार भी खर्चीला काम हो गया है,विद्युत् शवदाह में भी असंख्य यूनिट बिजली खर्च होती है तो क्यों न प्रदूषण मुक्त दान करें और क्यों न सहभागी बनें जन कल्याण के लिए अपने मृत शरीर पर होने वाले चिकित्सकीय प्रयोगों में.कितना अच्छा होगा यदि आपके दिवंगत होने के बाद भी आप का शरीर नए आविष्कारों और क्रांतियों के काम आये.क्या इससे अच्छा कोई दान हो सकता है?


एक डॉक्ट अपने १० दिन के शिशु को पुन्य का भागी बना सकता है.(देखिये फोटो) यह उत्साहित करने वाली बात है.मान लीजिये कि आप किसी असाध्य रोग से जूझ रहे हैं तो क्या आप नहीं चाहेंगे कि इस रोग का कोई निदान उपलब्ध हो?


मैं जानता हूँ कि परम्परावादी लोगों को मेरा यह आलेख पसंद नहीं आयेगा.किन्तु परिस्थिति के अनुसार परम्परा को बदल देने में कोई हर्ज़ नहीं है।



व्यक्तिगत तौर पर मैंने देहदान का संकल्प कर लिया है.आप क्या सोचते है??




(जो मेरे मन ने कहा....)

06 September 2010

उस 'अनजान' के नाम....(जिसे शायद मैं कभी जानता था)

तेरी आँखों के ये आँसूं,मेरे दिल को भिगोते हैं,
तुझे याद कर-कर हम भी,रात-रात भर रोते हैं,
बिन तेरे चैन कहाँ,बिन तेरे रैन कहाँ,
जाएँ तो जाएँ कहाँ,हर जगह तेरा निशाँ,
तेरे लब जब थिरकते हैं,बहुत हम भी मचलते हैं,
चाहते हैं कुछ कहना,मगर कहने से डरते हैं॥



कितने हैं शायर यहाँ,कितने हैं गायक यहाँ,
मेरा है वजूद वहां,जाए तू जाए जहाँ,
कैसी ये प्रीत मेरी,कैसी ये रीत तेरी,
अर्ज़ है क़ुबूल कर ले,आज मोहब्बत मेरी,
तेरे अनमोल ये मोती,जाने क्यों क्यूँ यूँ बिखरते हैं,
अधरों से पीले इनको ,वफ़ा के गीत कहते हैं॥









(जो मेरे मन ने कहा...)
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